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[केवलज्ञान
भ० श्री वासुपूज्य
केवलज्ञान दीक्षा लेकर भगवान् तपस्या करते हुए एक मास छद्मस्थचर्या में विचरे और फिर उसी उद्यान में पाकर पाटला वृक्ष के नीचे ध्यानस्थित हो गये । शुक्लध्यान के दूसरे चरण में चार घातिकर्मों का क्षय कर माघ शुक्ला द्वितीया को शतभिषा के योग में प्रभु ने चतुर्थ-भक्त (उपवास) से केवलज्ञान की प्राप्ति की।
केवली होकर प्रभु ने देव-असुर-मानवों की विशाल सभा में धर्म-देशना दी तथा शान्ति प्रादि दशविध धर्म का स्वरूप समझाकर चतुर्विध संघ की स्थापना की और भाव-तीर्थंकर कहलाये।
_ विहार करते हुए जब प्रभु द्वारिका के निकट पधारे तो राजपुरुष ने वासूदेव द्विपष्ठ को प्रभ के पधारने की शुभ-सूचना दी। भगवान वासुपूज्य के पधारने की शुभ-सूचना की बधाई सुनाने के उपलक्ष में वासुदेव ने उसको साढ़े बारह करोड़ मुद्राओं का प्रीतिदान दिया। त्रिपृष्ठ के बाद ये भरत क्षेत्र में इस समय के दूसरे वासुदेव होते हैं ।
धर्म-परिवार आपके संघ में निम्न परिवार था :गण एवं गणधर - छियासठ [६६] केवली
- छ हजार [६,०००] मनःपर्यवज्ञानी
- छ हजार एक सौ [६,१००] अवधिज्ञानी
~ पांच हजार चार सौ [५,४००] चौदह पूर्वधारी - एक हजार दो सौ [१,२००] वैक्रिय लब्धिधारी - दस हजार [१०,०००]
- चार हजार सात सौ [४.७००] साधु
- बहत्तर हजार [७२,०००]
- एक लाख [१,००,०००] श्रावक
- दो लाख पन्द्रह हजार [२,१५,०००] श्राविका
- चार लाख छत्तीस हजार [४,३६,०००]
राज्य-शासन पर धर्म-प्रभाव श्रेयांसनाथ की तरह भगवान् वासुपूज्य का धर्मशासन भी सामान्य लोकजीवन से लेकर राजघराने तक व्यापक हो चला था । छोटे-बड़े राजाओं के अतिरिक्त उस समय के अर्द्ध चक्री (वासुदेव) द्विपृष्ठ और विजय बलदेव पर भी . उनका विशिष्ट प्रभाव था।
वादी
साध्वी
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