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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[उपरिचर वसु
नारद ने कहा-"पर्वत ! दुराग्रह का अवलम्बन लेकर इस प्रकार की प्रतिज्ञा न करो । मैं तो तुमसे बार-बार यही कहता हूं कि इस प्रकार का अनर्थ मौर अधर्म मत करो । हमारे पूज्यपाद उपाध्याय ने हमें अज का अर्थ नहीं उगने वाला धान्य बताया है । यह तुम भी अपने मन में भलीभांति जानते हो । केवल दुराग्रहवश तुम जो यह अधर्मपर्ण अनर्थ करने जा रहे हो, यह तुम्हारे लिये भी अकल्याणकर है और लोकों के लिये भी।"
इस पर पर्वत ने कहा-"इस वेदवाक्य का अर्थ मैं भी अपनी बुद्धि से नहीं बता रहा हूं। आखिर मैं भी उपाध्याय का पुत्र हूं । पिताजी ने मुझे इसी प्रकार का अर्थ सिखाया है।"
नारद ने कहा- “पर्वत ! हमारे स्वर्गीय गुरु के हम दोनों के अतिरिक्त तीसरे शिष्य हरिवंशोत्पन्न महाराज उपरिचर वसू भी हैं । अतः 'अजैर्यष्टव्यं' का अर्थ उनसे पूछा जाय और वे जो इसका अर्थ बताएं, उसे प्रामाणिक और सत्य माना जाय ।"
पर्वत ने नारद के प्रस्ताव को स्वीकार किया और अपनी माता के समक्ष नारद के साथ हुए अपने विवाद की सारी बात रखी।
माता ने पर्वत से कहा-"पुत्र ! तूने बहुत बुरा किया। तेरे पिता द्वारा, नारद सदा ही सम्यक् प्रकार से विद्या ग्रहण करने वाला और ग्रहण की हुई विद्या को हृदयंगम करने वाला माना जाता था।"
इस पर पर्वत ने अपनी माता से कहा-"मां ! ऐसा न कहो । मैंने अच्छी तरह सूत्रों के अर्थ को समझा है । तुम देखना, मैं वसु के निर्णय से नारद को हराकर उसको जिह्वा कटवा दूंगा।"
पर्वत की माता को अपने पुत्र की बात पर विश्वास नहीं हमा । वह महाराज वसु के पास गई और वसु के समक्ष 'अजैर्यष्टव्यं' इस वेदवाक्य को लेकर नारद और पर्वत के बीच जो विवाद खड़ा हग्रा, उसके सम्बन्ध में दोनों के पक्ष को प्रस्तुत करने के पश्चात् वसु से उसने पूछा-"तुम्हारे प्राचार्य से तुम लोगों ने 'प्रजैर्यष्टव्यम्' इस वेदवाक्य का क्या अर्थ सीखा था?"
उत्तर में वसु ने कहा-"मात ! इस पद का अर्थ जैसा कि नारद बताता है, वही हम लोगों ने हमारे पूज्यपाद प्राचार्य से अवधारित किया है।"
___ वसु का उत्तर सुन कर पर्वत की माता शोकसागर में निमग्न हो गई। उसने वसु से कहा-"वत्स ! यदि तुमने इस प्रकार का निर्णय दिया तो मेरे पुत्र पवंत का सर्वनाश सुनिश्चित है । पुत्र-वियोग में मैं भी अपने प्राणों को धारण
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