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________________ ३२३ उपरिचर वसु] भगवान् श्री अरिष्टनेमि नहीं कर सकूँगी । अतः अपने पुत्र की मृत्यु से पहले ही मैं तुम्हारे सम्मुख अभी इसी समय अपने प्राणों का परित्याग किये देती हूं।" यह कह कर पर्वत की माता ने तत्काल अपनी जिह्वा अपने हाथ से पकड़ ली। मरणोद्यता उपाध्यायिनी को देखकर वसु नृपति अवाक रह गये । उसी समय पाखण्ड-पन्थ के उपासक कुछ लोगों ने राजा वसु से कहा- "देव ! उपाध्यायिनी के वचनों को सत्य समझिये । यदि कहीं ऐसा अनर्थ हो गया तो हम इस पाप से तत्क्षण ही नष्ट हो जायेंगे।" . अपनी उपाध्यायिनी द्वारा की जाने वाली आत्महत्या के निवारणार्थ और पर्वत के समर्थक पाखन्डपन्थानुयायी लोगों के कहने में आकर अवश हो वसु ने कहा-"मां ! ऐसा न करो। मैं पर्वत के पक्ष का समर्थन करूंगा।" अपना कार्य सिद्ध हुआ देख आचार्य क्षीरकदम्बक की विधवा पत्नी अपने घर को लौट गई। दूसरे दिन जन-समुदाय दो दलों में विभक्त हो गया । कई नारद की प्रशंसा करने लगे तो कई पर्वत की । विशाल जनसमूह के साथ नारद और पर्वत महाराज उपरिचर वसु की राजसभा में पहुंचे । उपरिचर वसु अदृश्य तुल्य स्फटिक-प्रस्तर-निर्मित विशाल स्तम्भ पर रखे अपने राजसिंहासन पर विराजमान थे अतः यही प्रतीत हो रहा था कि वे बिना किसी प्रकार के सहारे के आकाश में अधर सिंहासन पर विराजमान हैं। नारद और पर्वत ने क्रमशः अपना-अपना पक्ष महाराज उपरिचर वसू के समक्ष रखा और उन्हें निर्णय देने का अनुरोध किया कि दोनों पक्षों में से किसका पक्ष सत्य है ? सत्य-पक्ष को जानते हुए भी अपनी आचार्य-पत्नी, पर्वत की माता को दिये गये आश्वासन के कारण असत्य-पक्ष का समर्थन करते हुए महाराज वसु ने निर्णय दिया-"अज अर्थात् छाग-बकरे से यज्ञ करना चाहिये।" असत्य-पक्ष का जान-बूझ कर समर्थन करने के कारण उपरिचर वसु का सिंहासन उसी समय सत्य के समर्थक देवताओं द्वारा ठुकराया जाकर पृथ्वी पर गिरा दिया गया और इसी तरह 'उपरिचर' वसु ‘स्थलचर' वसु बन गया। तत्काल वसु के समक्ष प्रामाणिक धर्म-ग्रन्थ रखे गये और उससे कहा गया कि उन्हें देखकर पुनः वह सही निर्णय दे । पर फिर भी वसु ने मूढतावश यही कहा-"जैसा पर्वत कहता है, वही इसका सही अर्थ है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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