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आजीवक चर्या]
भगवान् महावीर
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अातापनायें किया करते थे। मुनि कल्याण विजयजी के अनुसार वे अपनी इस विरोधात्मक प्रवृत्ति के कारण ही विरोधी लोगों के आक्षेप के पात्र बने । लोग कहने लगे कि ये जो कुछ भी करते हैं, आजीविका के लिये करते हैं, अन्यथा नियतिवादी को इसकी क्या आवश्यकता है ?
आजीवक नाम प्रचलित होने के मूल में चाहे जो अन्य कारण रहे हों पर इस नाम के सर्वमान्य होने का एक प्रमुख कारण आजीविका भी है।
जैनागम भगवती के अनुसार गोशालक निमित्त-शास्त्र का भी अभ्यासी था। वह समस्त लोगों के हानि-लाभ, सुख-दुःख एवं जीवन-मरण विषयक भविष्य बताने में कुशल और सिद्धहस्थ माना जाता था। अपने प्रत्येक कार्य में वह उस ज्ञान की सहायता लेता था। आजीवक लोग इस विद्या के बल से अपनी सुख-सामग्री जुटाया करते थे। इसके द्वारा वे सरलता से अपनी आजीविका चलाते । यही कारण है कि जैन शास्त्रों में इस मत को आजीवक और लिंगजीवी कहा है।
इस तरह नियतिवादी होकर भी विविध क्रियाओं के करने और आजीविका के लिये निमित्त विद्या का उपयोग करने से वे विरोधियों, खासकर जैनों द्वारा 'आजीवक' नाम से प्रसिद्ध हुए हों, यह संगत प्रतीत होता है।
प्राजीवक-चर्या
'मज्झिमनिकाय' के अनसार निर्ग्रन्थों के समान प्राजीविकों की जीवनचर्या के नियम भी कठोर बताये गये हैं । 'मज्झिमनिकाय' में आजीवकों की भिक्षाचरी का प्रशंसात्मक उल्लेख करते हुए एक स्थान पर लिखा है- “गाँवों, नगरों में आजीवक साधु होते हैं, उनमें से कुछ एक दो घरों के अन्तर से, कुछ एक तीन घरों के अन्तर से, यावत् सात घरों के अन्तर से भिक्षा ग्रहण करते हैं। संसार-शुद्धि को दृष्टि से जैनों के चौरासी लाख जीव-योनि के सिद्धान्त की तरह वे चौरासी लाख महाकल्प का परिमाण मानते हैं। छः लेश्यामों की तरह गोशालक ने छः अभिजातियों का निरूपण किया है, जिनके कृष्ण, नील आदि नाम भी बराबर मिलते हैं।"
भगवती में आजीवक उपासकों के प्राचार-विचार का संक्षिप्त परिचय मिलता है, जो इस प्रकार है :
"गोशालक के उपासक अरिहन्त को देव मानते, माता-पिता की सेवा करते, गूलर, बड़, बेर, अंजीर, एवं पिलखु इन पाँच फलों का भक्षण नहीं करते,
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