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________________ ७३० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [माजीवक मत बैलों को लांछित नहीं करते, उनके नाक, कान का छेदन नहीं करते एवं जिससे वस प्राणियों की हिंसा हो, ऐसा व्यापार नहीं करते थे।' प्राजीवक मत का प्रवर्तक अभी तक बहुत से जैन-अजैन विद्वान् गोशालक को आजीवक मत का संस्थापक मानते आ रहे हैं। जैन शास्त्रों के अनुसार गोशालक नियतिवाद का समर्थक और आजीवक मत का प्रमुख आचार्य रहा है, किन्तु कहीं भी उसका इस मत के संस्थापक के रूप में नामोल्लेख नहीं मिलता। जैन शास्त्रों में जो अन्य तीर्थों के चार प्रकार बतलाये गये हैं, उनमें नियतिवाद का स्थान चौथा है। इससे महावीर के समय में "नियतिवादी" संघ पूर्व से ही प्रचलित होना प्रमाणित होता है। बौद्धागम 'विनयपिटक' में बुद्ध के साथ एक 'उपक' नाम के प्राजीवक भिक्षु के मिलने की बात आती है। यदि आजीवक मत की स्थापना गोशालक से मानी जाय तो उसका मिलना संभव नहीं होता, क्योंकि महावीर की बत्तीस वर्ष की वय में जब पहले पहल गोशालक उनसे मिला तब वह किशोरावस्था में पन्द्रह-सोलह वर्ष का था । जिस समय वह महावीर के साथ हुआ, उस समय प्रव्रज्या के दो वर्ष हो चुके थे। इसके बाद उसने नौवें वर्ष में पृथक हो, श्रावस्ती में छ: माह तक आतापना लेकर तेजोलेश्या प्राप्त की। फिर निमित्त शास्त्र का अध्ययन कर वह आजीवकः संघ का नेता बन गया। निमित्त ज्ञान के लिये कम से कम तीन-चार वर्ष का समय माना जाय तो गोशालक द्वारा आजीवक संघ का नेतृत्व ग्रहण करना लगभग महावीर के तीर्थंकरपद-प्राप्ति के समय हो सकता है । ऐसी स्थिति में बुद्ध को बुद्धत्व प्राप्त होने के समय गोशालक के मिलने की बात ठीक नहीं लगती। फिर बौद्ध ग्रन्थ "दीर्घ निकाय" और "मज्झिम निकाय" में मंखलि गोशालक के अतिरिक्त "किस्स संकिच्च" और "नन्दवच्छ” नाम के दो और आजीवक नेताओं के नाम मिलते हैं। इससे यह अनुमान होता है कि गोशालक से पूर्व ये दोनों आजीवक भिक्ष थे। इन्होंने आजीवक मत स्वीकार करने के बाद गोशालक को लब्धिधारी और निमित्त शास्त्र का ज्ञाता जान कर संघ का नायक बना दिया हो, यह संभव है। प्राजीवक मत की स्थापना का स्पष्ट निर्देश नहीं होने पर भी गोशालक के शरीरान्तर प्रवेश के सिद्धान्त से यह अनुमान लगाया जाता है कि उदायी १ इच्चेए दुवालस आजीविनोवासगा अरिहंत देवयागा अम्मापिउसुस्सूसगा पंचफल-पडिकन्ता त० उडंबरेहि बडेहि बोरेहि, सतरेहि, पिलक्खूहि, पलंडुल्हसूणकन्दमूलविवज्जगा अरिगल्लंछिएहि अणकभिण्योहिं तसपारण विवज्जिएहिं चित्तेहिं वित्ति कप्पेमारणा विहरंति । [भगवती सूत्र, शतक ८, उ० ५, सू० ३३०, अभयदेवीयावृत्ति, ५० ३७० (१)] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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