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________________ का प्रवर्तक भगवान् महावीर ७३१ कुडियायन प्राजीवक संघ का प्रादिप्रवर्तक हो, जो गोशालक के स्वर्गवास से १३३ वर्ष पूर्व हो चुका था। गोशालक के सम्बन्ध में इन वर्षों में काफी गवेषणा हुई है। पूर्व और पश्चिम के विद्वानों ने भी बहुत कुछ नयी शोध की है, फिर भी यह निश्चित है कि गोशालक विषयक जो सामग्री जैन और बौद्ध साहित्य में उपलब्ध होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। कुछ विद्वान इस बात को भूल कर मूल से ही विपरीत सोचते हैं। उनका कहना है कि जैन दृष्टि गोशालक को महावीर के ढोंगी शिष्यों में से एक मानती है, पर वास्तव में ऐसी बात नहीं है । डॉ० बरुग्रा ने अपनी इस धारणा की पृष्ठभूमि में माना है कि-महावीर पहले तो पार्श्वनाथ के पंथ में थे, किन्तु एक वर्ष बाद वे अचेलक हुए, तब अचेलक पंथ में चले गये। इन्होंने यह भी माना कि गोशालक को महावीर से दो वर्ष पूर्व ही जिनत्व प्राप्त हो गया। उनके ये सब विचार कल्पनाश्रित हैं, फिर भी साधारण विचारकों पर उनका प्रभाव होना सहज है। जैसा कि गोपालदास जीवाभाई पटेल ने बरुपाजी के ग्रन्थ से प्रभावित हो कर लिखा--"जैन सत्रों में गोशालक के विषय में जो परिचय मिलता है, उसमें उसको चरित्र-भ्रष्ट तथा महावीर का शिष्य ठहराने का इतना अधिक प्रयत्न किया गया है कि उन लेखों को आधारभूत मानने को ही मन नहीं मानता।२ वास्तव में गोपालदास ने जैन सत्रों के भाव को नहीं समझा, ते पश्चिमी विचार के प्रभाव में ऐसा लिख गये। असल में जैन और बौद्ध परम्पराग्यों मे हटकर यदि इसका अन्वेषण किया जाय तो संभव है कि गोशालक नाम का कोई व्यक्ति ही हमें न मिले । जब हम कुछ आधारों को सही मानते हैं, तब किसी कारण से कुछ अन्य को असत्य मान लें, यह उचित प्रतीत नहीं होता। भले ही जैन और बौद्ध आधार किसी अन्य भाव या भाषा में लिखे गये हों, फिर भी वे हमें मान्य होने चाहिये । क्योंकि वे निहतुक नहीं हैं, निहतुक होते तो दो भिन्न परम्पराओं के उल्लेख में एक दूसरे का समर्थन एवं साम्य नहीं होता। यदि जैन आगम उसे शिष्य बतलाते और बौद्ध व प्राजीवक शास्त्र उसे गुरु लिखते तो यह शंका उचित हो सकती थी, पर वैसी कोई स्थिति नहीं है। जैन शास्त्र की प्रामाणिकता जैन आगमों के एतविषयक वर्णनों को सर्वथा प्रापेक्षात्मक समझ बैठना भी भूल होगा। जैन शास्त्र जहाँ गोशालक एवं आजीवक मत की हीनता व्यक्त करते हैं, वहाँ वे गोशालक को अच्युत स्वगं तक पहुँचा कर मोक्षगामी भी बतलाते हैं, साथ ही उनके अनुयायी भिक्षुत्रों को अच्युत स्वर्ग तक पहुँचने की १ महावीर नो संयम धर्म (सूत्र कृतांग का गुजराती संस्करण), पृ० ३४ । २ पागम पोर त्रिपिटक-एक अनुशीलन, पृ० ४४-४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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