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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्राजीवक वेष क्षमता देकर गौरव प्रदान करते हैं ।' एकांगी विरोध की ही दृष्टि होती तो उस में ऐसा कभी संभव नहीं होता ।
__ प्राजीवक वेष विभिन्न मतावलम्बियों के विभिन्न प्रकार के वेष होते हैं। कोई धात रक्ताम्बर धारण करता है तो कोई पीताम्बर, किन्तु आजीवक के किसी विशेष वेष का उल्लेख नहीं मिलता। बौद्ध शास्त्रों में भी आजीवक भिक्षों को नग्न ही बताया गया है, वहाँ उनके लिये अचेलक शब्द का प्रयोग किया गया है । उसके लिंग-धारण पर महावीर का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है, क्योंकि वह जब नालन्दा की तन्तुवायशाला में भगवान् महावीर से प्रथम बार मिला तब उसके पास वस्त्र थे। पर चातुर्मास के बाद जब भगवान् महावीर नालन्दा से विहार कर गये तब वह भी वस्त्रादि ब्राह्मणों को देकर मुडित हो कर महावीर की खोज में निकला और कोल्लाग सन्निवेश में उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया ।
आजीवकों के प्राचार के सम्बन्ध का वर्णन "मज्झिम निकाय" में मिलता है। वहाँ छत्तीसवें प्रकरण में निर्ग्रन्थ संघ के साधु "सच्चक" के मुख से यह बात निम्न प्रकार से कहलायी गयी है :
"वे सब वस्त्रों का परित्याग करते हैं, शिष्टाचारों को दूर रख कर चलते हैं, अपने हाथों में भोजन करते हैं, आदि।" "दीर्घ निकाय" में भी कश्यप के मुख से ऐसा स्पष्ट कहलाया गया है ।
महावीर का प्रभाव
गोशालक की वेष-भूषा और आचार-विचार से यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि उस पर भगवान महावीर के प्राचार का पूर्ण प्रभाव था । "मज्झिम निकाय" में आजीवकों के प्राचार का निम्नांकित परिचय मिलता है :
"वे भिक्षा के लिये अपने प्राने अथवा राह देखने सम्बन्धी किसी की बात नहीं सुनते, अपने लिये बनवाया पाहार नहीं लेते, जिस बर्तन में आहार पकाया गया हो, उसमें से उसे नहीं लेते, देहली के बीच रखा हुआ, अोखली में कटा हुआ और चूल्हे पर पकता हुआ भोजन ग्रहण नहीं करते। एक साथ भोजन करने वाले युगल से तथा सगर्भा और दुधमुहे बच्चे वाली स्त्री से आहार नहीं लेते । जहाँ आहार कम हो, जहाँ कुत्ता खड़ा हो और जहाँ मक्खियां भिनभिनाती हों, वहाँ से आहार नहीं लेते। मत्स्य, मांस, मदिरा, मैरेय और खट्टी कांजी को वे स्वीकार नहीं करते....। कोई दिन में एक बार, कोई दो-दो दिन
१ भगवती श०, श० १५॥ सू० ५५६, पत्र ५८८ (१) ।
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