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निग्रन्थों के भेद]
भगवान् महावीर
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बाद एक बार, कोई सात-सात दिन बाद एक बार और कोई पन्द्रह-पन्द्रह दिन बाद एक बार प्रहार करते हैं। इस प्रकार नाना प्रकार के वे उपवास करते हैं।"
__ इस प्रकार का प्राचार निग्रन्थ परम्परा के अतिरिक्त नहीं पाया जाता। इस उल्लेख से गोशालक पर महावीर के प्राचार का स्पष्ट प्रभाव कहे बिना नहीं रहा जा सकता।
निग्रन्थों के भेद प्राजीवक ओर निग्रन्थों के प्राचार की आंशिक समानता देखकर कुछ विद्वान् सोचते हैं कि इन दोनों के प्राचार एक हैं, परन्तु वास्तव में दोनों परम्पराओं के प्राचार में मौलिक अन्तर भी है। "मज्झिम निकाय' में जो भिक्षा के नियम बतलाये हैं, संभव है, वे सभी आजीवकों द्वारा नहीं पाले जा कर कुछ विशिष्ट आजीवक भिक्षों द्वारा ही पाले जाते हों। मूल में निग्रन्थ और आजीवकों के प्राचार में पहला भेद सचित्त-अचित्त सम्बन्धी है । जहाँ निग्रन्थ परम्परा में सचित्त का स्पर्श तक भी निषिद्ध माना जाता है, वहाँ आजीवक परम्परा में सचित्त फल, बीज और शीतल जल ग्राह्य बताया गया है । अत: कहा जा सकता है कि जिस प्रकार उनमें उग्र तप करने वाले थे, वैसे शिथिलता का प्रवेश भी चरम सीमा पर पहुंच चुका था।
आर्द्रक कुमार के प्रकरण में आजीवक भिक्षुओं के अब्रह्म सेवन का भी उल्लेख है । इसे केवल आक्षेप कहना भूल होगा, क्योंकि जैनागम के अतिरिक्त बौद्ध शास्त्र से भी आजीवकों के प्रब्रह्म-सेवन की पुष्टि होती है ।' वहाँ पर निग्रन्थ ब्रह्मचर्यवास में और प्राजीवक अब्रह्मचर्यवास में गिनाये गये हैं।
____ गोशालक ने बुद्ध, मुक्त और न बद्ध न मुक्त ऐसी तीन अवस्थाएँ बतलायी हैं । वे स्वयं को मुक्त कर्मलेप से परे मानते थे। उनका कहना था कि मुक्त पुरुष स्त्री-सहवास करे तो उसे भय नहीं । इन लेखों से स्पष्ट होता है कि आजीवकों में प्रब्रह्म-सेवन को दोष नहीं माना जाता था।
प्राजीवक का सिद्धान्त आजीवक परम्परा के धार्मिक सिद्धान्तों के विषय में कुछ जानकारी जैन १ (क) मज्झिम निकाय, भाग १, पृ० ५१४ ।
(ख) एन्साइक्लोपीडिया प्राफ रिलीजन एण्ड एथिक्स, डॉ२ हानले, पृ० २६१ । २ मज्झिमम निकाय, संदक सुत्त, पृ० २३६ । ३ (क) महावीर कथा, गोपालदास पटेल, पृ० १७७ । (ख) श्रीचन्द रामपुरिया, तीर्थकर वढं मान, पृ० ८३ ।
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