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________________ ७३४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [दिगम्बर परम्परा में गोशालक और बौद्ध सूत्रों से प्राप्त होती है । गोशालक ने अपने धार्मिक सिद्धान्त के विषय में भगवान महावीर के समक्ष जो विचार प्रकट किये, उनका विस्तृत वर्णन भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक में उपलब्ध होता है । इसके अतिरिक्त प्राजीवकों के नियतिवाद का भी विभिन्न सूत्रों में उल्लेख मिलता है। उपासक दशांग सूत्र के छठे और सातवें अध्ययन में नियतिवाद की चर्चा है। वहाँ कहा गया है कि गोशालक मंखलिपुत्र की धर्मप्रज्ञप्ति इसलिये सुन्दर है कि उसमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम आदि आवश्यक नहीं, क्योंकि उसके मत में सब भाव नियत हैं और महावीर के मत में सब भाव अनियत होने से उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम की आवश्यकता मानी गई है । बौद्ध सूत्र दीर्घ निकाय में भी इससे मिलता जुलता सिद्धान्त बतलाया गया है, यथाप्राणियों की भ्रष्टता के लिये निकट अथवा दर का कोई कारण नहीं है। वे बिना निमित्त या कारण के ही पवित्र होते हैं। कोई भी अपने या पर के प्रयत्नों पर आधार नहीं रखता । यहाँ कुछ भी पुरुष-प्रयास पर अवलम्बित नहीं है, क्योंकि इस मान्यता में शक्ति, पौरुष अथवा मनुष्य-बल जैसी कोई वस्तु नहीं है।" प्रत्येक सविचार उच्चतर प्राणी, प्रत्येक सेन्द्रिय-वस्तु, अधमतर प्राणी, प्रत्येक प्रजनित वस्तु (प्राणिमात्र) और प्रत्येक सजीव वस्तु-सर्व वनस्पति बलहीन. प्रभावहीन एवं शक्तिहीन है। इनकी भिन्न-भिन्न अवस्थाएं विधिवश या स्वभाववश होती हैं और षडवों में से एक अथवा दसरे की स्थिति के अनसार मनुष्य सुख दुःख के भोक्ता बनते हैं । दिगम्बर परम्परा में गोशालक श्वेताम्बर परम्परा में गोशालक को भगवान महावीर का शिष्य बताया गया है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में गोशालक का परिचय अन्य प्रकार से मिलता है। यहाँ पार्श्वनाथ परम्परा के मनि रूप में गोशालक का चित्रण किया गया है । कहा जाता है कि मस्करी गोशालक और पूर्ण काश्यप (ऋषि) महावीर के प्रथम समवशरण में उपस्थित हुए, किन्तु महावीर की देशना नहीं होने से गोशालक रुष्ट होकर चला गया। कोई कहते हैं कि वह गणधर होना चाहता था, किन्तु उसे गणधर पद पर नियुक्त नहीं करने से वह पृथक् हो गया । पृथक हो कर वह सावत्थी में आजीवक सम्प्रदाय का नेता बना और अपने को तीर्थकर कहने लगा । उसने कहा-"ज्ञान से मुक्ति नहीं होती, अज्ञान ही श्रेष्ठ है, उसी से मोक्ष की प्राप्ति होती है। देव या ईश्वर कोई नहीं है। अतः स्वेच्छापूर्वक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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