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प्राजीवक और पासत्थ]
भगवान् महावीर
शून्य का ध्यान करना चाहिये ।""
प्राजीवक और पासत्थ प्राजीवक संप्रदाय का मूल स्रोत श्रमण परम्परा में निहित है ।' आजीवकों और श्रमणों में मुख्य अन्तर इस बात का है कि वे आजीविकोपार्जन करने के लिये अपनी विद्या का प्रयोग करते हैं, जब कि जैन श्रमण इसका सर्वथा निषेध करते हैं।' आजीवक मूलतः पार्श्वनाथ परम्परा से सम्बन्धित माने गये हैं। सूत्र कृतांग में नियतिवादी को "पासत्थ" कहा गया है। इस पर भी कुछ विद्वान् आजीवक को पार्श्वनाथ की परम्परा में मानने का विचार करते हैं। "पासत्थ" का संस्कृत रूप पार्श्वस्थ होता है, पर उसका अर्थ पार्श्वनाथ की परम्परा करना संगत प्रतीत नहीं होता । भगवान् महावीर द्वारा तीर्थस्थापन कर लेने पर शिथिलतावश जो उनके तीर्थ में नहीं आये, उनके लिये चारित्रिक शिथिलता के कारण पार्श्वस्थ शब्द का प्रयोग हो सकता है । संभव है, महावीर के समय में कुछ साधुओं ने पार्श्वनाथ की परम्परा का अतिक्रमण कर स्वच्छन्द विहार करना स्वीकार किया हो ।
. पर पार्श्व शब्द केवल पार्श्व-परम्परा के साधुओं के लिये ही नहीं, किन्तु जो भी स्नेह-बन्धन में बद्ध हो या ज्ञानादि के बाजू (पार्श्व-सान्निध्य) में रहता हो, वह चाहे महावीर परम्परा का हो या पार्श्वनाथ परम्परा का हो, उसे "पासत्य" कह सकते हैं। टीकाकार ने इसका अर्थ "सदनुष्ठानाद् पार्वे तिष्ठन्तीति पावस्था"५ अच्छे अनुष्ठान के बाजू-पार्श्व में रहने वाले । अथवा "साधुः गुणानां पार्वे तिष्ठति' किया है। १ मयसरि-पूरणारिसिणो उप्पणो पासणाहतिम्मि । सिरिवीर समवसरणे, प्रगहिय झुरिगणा नियत्तेण ।। बहिरिणग्गएरण उत्तं मझं. एयार सांगधारिस्स। रिणग्गइ झुणीण माहो, रिणग्गय विस्सास सीसस्स ।। ण मुणइ जिणकहिय सुर्य, संपइ दिक्वाय गहिय गोयमनो। विप्पो वेयभासी तम्हा, मोक्खं ग णारणाप्रो ।। अण्णाणाम्रो मोक्ख, एवं लोयाण पयडमाणो हु । देवो प्र गत्थि कोई, मुण्णं झाएह इच्छाए ।।
___ [भावसंग्रह, गाथा १७६ से १७८] २ हिस्ट्री एण्ड डोक्टराइन्स प्राफ प्राजीवकाज. पृ० ६८ । ३ उत्तराध्ययन सूत्र, ८।१३, १५७ । ४ सूत्र कृतांग, ११११२ गा० ४ व ५ । ५ सूत्र कृतांग १ श्रु० ३ प्र० ४३०
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