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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [प्राजीवक और पासत्थ ____ "पासत्थ" साधुओं की दो श्रेणियाँ की गई हैं-सर्वतः पार्श्वस्थ और देशतः पार्श्वस्थ , भगवान महावीर के तीर्थ प्रवर्तन के पश्चात भी जो ज्ञानादि रत्नत्रयी से विमुख हो कर मिथ्या दृष्टि का प्रचार करने में लगे रहे, उनको सर्वतः पासत्थ कहा गया है । और जो शय्यातर पिंड, अभिहत पिंड, राजपिंड, नित्यपिंड, अग्रपिंड आदि आहार का उपयोग करते हों वे देशतः पासत्थ कहलाये । उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार 'पासत्थ" का अर्थ पार्श्व-परम्परा के साधु ही करना उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि "पासत्थ" को शास्त्रों में अवन्दनीय कहा है । जैसा कि-"ज भिवख पासत्थं पसंसति, पसंतं वा साइज्जई" के अनुसार उनके लिये वंदन-प्रशंसन भी बजित किया गया है, किन्तु पार्श्वनाथ की परम्परा का साधु वन्दनीय रहा है । भगवती सूत्र में तुगिया नगरी के श्रावकों ने आनन्द आदि पार्श्व परम्परा के स्थविरों का वन्दन-सत्कार आदि भक्तिपूर्वक किया है। वे गांगेय मुनि आदि की तरह भ० महावीर की परम्परा में प्रजित भी नहीं हुए थे। यदि पार्श्वनाथ के सन्तानीय श्रमण आजीवक की तरह "पासत्थ" होते तो जैसे सद्दाल-पुत्त श्रावक ने गोशालक के वन्दन-नमन का परिहार किया, उसी तरह पार्श्वनाथ के साधु तुगिका के श्रावकों द्वारा अवंदनीय माने जाते, पर ऐसा नहीं है। अत: “पासत्थ" का अर्थ पार्श्वस्थ (पार्श्व परम्परा के साधु) करना ठीक नहीं। आजीवक को पासत्थ इसलिये कहा है कि वे ज्ञानादि-त्रय को पार्श्व में रखे रहते हैं। इसलिये पासत्था कहे जाने से प्राजीवक गोशालक को पाव-परम्परा में मानना ठीक नहीं जंचता। जैनागमों से प्राप्त सामग्री के अनुसार गोशालक को महावीर की परम्परा से सम्बन्धित मानना ही अधिक युक्तियुक्त एवं उचित प्रतीत होता है । १ दुविहो खलु पासत्थो, देसे सब्बे य होई नायव्वो। सब्बे तिन्नि विकप्पा, देसे सेज्जायर कुलादी ॥२२६। दंसरण गाणचरित्ते, सत्थो अत्थति तहिं न उज्जमति । एएणं पासत्थो एसो अन्नो वि पज्जायो।।२२। पासो त्ति बंधणं ति य, एगळं बंधहेयो पासा । पासत्थिो पासत्थो, प्राण्णो वि य एस पज्जाप्रो ॥२२६। [प्रभिधान राजेन्द्र, पृ० ६११ (व्य० भा०)] २ सेज्जायर कुलनिस्सिय, ठवरणकल पलोयणा अभिहडेय । पुम्वि पच्छा संथव, निइप्रागपिंड, भोइ पासत्थो ।२३०॥अभि रा० ६११ । ३ तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति । भग० सू०, सूत्र १०६ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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