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________________ प्रजा को प्रशिक्षण] भगवान् ऋषभदेव १०० (सौ) प्रकार के कर्म उत्पन्न हए।' लेन-देन के व्यवहार की दृष्टि से उन्होंने मान, उन्मान, अवमान और प्रतिमान का भी अपनी प्रजा को ज्ञान कराया। __इन सब शिल्पों एवं कृषि आदि कार्यों का प्रभ ने अपने पुत्रों को पहले ही प्रशिक्षण दे रखा था। अतः जन-साधारण के शिक्षण में उनसे बड़ा सहयोग प्राप्त हुआ। सम्पूर्ण राष्ट्र में सशक्त मानव कृषि योग्य विशाल मैदानों में जूझने लगे। अपने जीवन में पहली बार उन लोगों ने कठोर परिश्रम प्रारम्भ किया। वे सभी विशालकाय और सशक्त थे। उन्होंने धरती को साफ किया, हल चला कर उसमें बीज डाला। समय-समय पर वर्षा होती रही। वसुन्धरा सश्य श्यामला हो गई। हरे-भरे खेत लहलहाने लगे । बालियां पकने लगीं। दृष्टि जिस किसी मोर दौड़ाई जाती, उसी ओर धान्य की खेती से लहलहाते विशाल खेत दृष्टिगोचर होते। केवल प्रकृति पर निर्भर रहता आया मानव अपने पसीने की कमाई से लहलहाते खेतों को देखकर खुशी से झूम उठा। चारों ओर सुनहली प्यारी-प्यारी बालियों को देख कर प्रत्येक मानव के मुख से सहसा यही शब्द निकलते - "जुग-जुग जीयो ऋषभ महाराज, धरती सोना उगल रही है।" अब लोग सोचने लगे - "ढेरों अनाज पायगा, चारों ओर अनाज के प्रम्बार लग जायेंगे, इतना रखेंगे कहाँ ?" जन-जन के मुख से यही प्रश्न गूंजने लगा। पर महाराज ऋषभदेव ने एक सुन्दर, सशक्त और सुसमृद्ध महान् राष्ट्र के निर्माण की पूरी तैयारी कर ली थी। प्रभु से और भरत आदि कुमारों से प्रशिक्षण प्राप्त लाखों शिल्पी स्वर्गोपम सुन्दर राष्ट्र के निर्माण कार्य के लिये कटिबद्ध हो चके थे। ग्रामों, नगरों प्रादि का निर्माण महाराज ऋषभदेव के एक ही इंगित पर उनसे प्रशिक्षण पाये हुए शिल्पी अपने समस्त उपकरणों और अौजारों के साथ भारत के हृदय सम्राट महाराज ऋषभ का आज्ञापत्र लिये पहले सुकोशल, अवन्ती, केकय आदि जनपदों में महाराजाओं तथा राजाओं के पास और तत्पश्चात् वहाँ से राज्याधिकारियों के दलों के साथ सम्पूर्ण राष्ट्र के कोने-कोने में निर्दिष्ट स्थान पर पहुंच गये। वहां उन्होंने स्थानीय निवासियों के श्रम का सहयोग ले ग्रामों, नगरों, पत्तनों, मडम्बों, संवाहों, द्रोणमुखों, खेटों तथा कर्बटों का निर्माण प्रारम्भ किया। ' एवं ता पढम कुमकारा उपपन्ना ...' इमाणि सिप्पाणि उप्पाएयव्वारिण, तत्थ पच्छा वत्थ क्खा परिहीणा, ताएऽतिक्का उप्पाइया, पच्छा गेहागारा परिहीणा ताए वड्ढती उप्पाइता, पच्छा रोमनखारिण वड्दति ताहे कम्मकरा उप्पाइता पहाविया य एवं सिप्पसयं एवं सिप्पारण उप्पत्ति ।। -भावश्यक चूणि, पूर्व भाग, पृ० १५६ २प्रावश्यक नियुक्ति, गाथा २१३-१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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