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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ ग्रामों, नगरों श्रादि का निर्माण महाराज ऋषभदेव और भरतादि कुमारों द्वारा प्रशिक्षित कुशल शिल्पियों के कलात्मक कौशल श्रीर तत्कालीन उत्तम संहनन के धनी विशालकाय सशक्त मानवों के कठोर श्रम के परिणामस्वरूप देखते ही देखते सम्पूर्ण राष्ट्र गगनचुम्बी दुग्धधवला अट्टालिकाओं वाले भवनों से मण्डित ग्रामों, नगरों, खेटों, कबंटों, मडम्बों, पत्तनों और द्रोणमुखों आदि से सुसम्पन्न हो इस धरा पर साकार स्वर्ग तुल्य सुशोभित होने लगा । ३८ लोकस्थिति, कलाज्ञान एवं लोककल्याण इस प्रकार लोकनायक और राष्ट्रस्थविर के रूप में महाराज ऋषभदेव ने विविध व्यवहारोपयोगी विधियों से तत्कालीन जन-समाज को परिचित कराया। उस समय तक ऋषभदेव गृहस्थ पर्याय में थे । प्रारम्भ, परिग्रह की यता को समझते हुए भी उसके त्यागी नहीं थे । अतः जनहित और उदयकर्म के फल भोगार्थं आरम्भयुक्त कार्य भी करते - करवाते रहे । पर इसका अर्थ यह नहीं कि वे इन कर्मों को निष्पाप अथवा धर्मं समझ रहे थे । उन्होंने मानव जाति को अभक्ष्य भक्षण जैसे महारम्भी जीवन से बचा कर अल्पारम्भी जीवन जीने के लिये प्रसि, मसि, कृषि-रूप कर्म की शिक्षा दी और समझाया कि श्रावश्यकता से कभी सदोष प्रवृत्ति भी करनी पड़े तो पाप को पाप समझ कर निष्पाप जीवन की श्रोर लक्ष्य रखते हुए चलना चाहिये । यही सम्यग्दर्शीपन है । प्रभु ऋषभदेव ने कर्मयुग के आगमन के समय कर्मभूमि के कार्यकलापों से नितान्त अनभिज्ञ उन भोगभूमि के भोले लोगों को कर्मभूमि के समय में सुखपूर्वक जीवनयापन की कला सिखाकर मानवता को भटकने से बचा लिया । यह प्रभु का मानवता पर महान् उपकार है । प्रभु ऋषभदेव ने मानवता के कल्यारण के लिये अपने भरत आदि पुत्रों के माध्यम से उस समय के लोगों को पुरुषों की जिन बहत्तर कलाओं का प्रशिक्षण दिया, वे इस प्रकार हैं : बहत्तर कलाएं' ( १ ) लेहं ( २ ) गरिणयं : लेखनकला | : गरिणत - कला । , सम० सूत्र समवाम ७२ । कल्पसूत्र सु० टीका २ विशेषावश्यक भाष्य ४६४ की टीका में लिपियों के नाम ( १ ) ब्राह्मी, (२) हंस, (३) भूत, (४) यक्षी, (५) राक्षसी, (६) उड्डी, (७) यवनी, (८) तुरुष्की, (e) कीरी, (१०) द्राविड़ी, (११) सिंघविय, (१२) मालविनी, (१३) नागरी, (१४) लाटी, (१५) पारसी, (१६) श्रनिमित्ती, (१७) चारणक्यी और (१८) मूलदेवी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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