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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ सशक्त राष्ट्र का निर्माण से शासन संचालन सम्बन्धी परामर्शो का विचारों का प्रादान-प्रदान कर सके । प्रभु ने उन राजाओं को महामाण्डलिक, माण्डलिक और राजन्य, क्षत्रिय प्रादि उपाधियों से विभूषित किया ।" ३६ राष्ट्र की रक्षा के लिये महाराजाधिराज ऋषभ ने चार प्रकार की सेना गठित कर उनके उच्च अधिकारी के रूप में चार सेनापतियों की नियुक्ति की । अपराध निरोध के लिये कड़े नियमों के साथ महाराज ऋषभदेव ने चार प्रकार की दण्ड-व्यवस्था प्रचलित की, जो इस प्रकार थी : ( १ ) परिभाषण - अपराधी को साधारण अपराध के लिये प्राक्रोशपूर्ण शब्दों से दण्डित करना । (२) मण्डलीबन्ध - अपराधी को नियत समय के लिये सीमित क्षेत्र मण्डल में रोके रखना । (३) चारकबन्ध - बन्दीगृह में अपराधी को बन्द रखना । (४) छविच्छेद - मानवताद्रोही, राष्ट्रद्रोही अथवा पुनः पुनः घृणित अपराध करने वाले अपराधी के शरीर के हाथ, पैर प्रादि किसी अंग- उपांग का छेदन करना । इन चार प्रकार की दण्ड-नीतियों के सम्बन्ध में कतिपय प्राचार्यों का अभिमत है कि अन्तिम दो नीतियां भरत चक्रवर्ती के शासनकाल में प्रचलित हुईं थीं, परन्तु नियुक्तिकार प्राचार्य भद्रबाहु के मन्तव्यानुसार बन्ध श्रौर घात नीति भी भ० ऋषभदेव के शासनकाल में ही प्रचलित हो गई थी । - अपराधियों को खोज निकालने श्रीर दण्ड दिलाने के लिये प्रभु ने दंडनायक श्रादि अनेक पदाधिकारियों की नियुक्तियां भी कीं । प्रजा को प्रशिक्षरण शासन, सुरक्षा और अपराध निरोध की व्यवस्था करने के पश्चात् महाराज ऋषभदेव ने कर्मभूमि के कार्य-कलापों से नितान्त अनभिज्ञ अपनी प्रजा को स्वावलम्बी बनाना प्रावश्यक समझा । राष्ट्रवासी प्रपना जीवन स्वयं सरलता से अल्पारम्भपूर्वक बिता सकें ऐसी शिक्षा देने के विचार से उन्होंने १०० शिल्प और असि, मसि, कृषि रूप तीन कर्मों का प्रजा के हितार्थ उपदेश दिया । शिल्प कर्म का उपदेश देते हुए आपने सर्वप्रथम कुम्भकार का कर्म सिखाया । उसके पश्चात् वस्त्र-वृक्षों के क्षीण होने पर पटकार कर्म और गेहागार वृक्षों के प्रभाव वर्धक कर्म सिखाया । तदनन्तर चित्रकार कर्म श्रौर रोम - नखों के बढ़ने पर काश्यप अर्थात् नापित कर्म सिखाया। इन पाँच मूल शिल्पों के बीस-बीस भेदों से श्रावश्यक निर्युक्ति, गाथा १६८ २ श्रावश्यक नियुक्ति, गाथा २ से १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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