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________________ २७३ जितशत्रु का अनुराग] भगवान् श्री मल्लिनाथ राजा जितशत्रु अपनी एक सहस्र चारुहासिनी रानियों के विशाल परिवार से परिवृत्त हुअा अपने अन्त:पुर में बैठा हा आमोद-प्रमोद कर रहा था। चोक्षा परिवाजिका को देखते ही राजा अपने सिंहासन से उठा । परिव्राजिकाओं को प्रणाम करने के पश्चात् उन्हें आसन पर बैठने का निवेदन किया । चोक्षा परिवाजिका ने राजा को जय-विजय शब्दों के उच्चारण पूर्वक अभिवादित किया । जल से छिटके हुए दर्भासन पर बैठ कर चोक्षा परिव्राजिका ने राजा और रानियों से कुशलक्षेम पूछा । कुशलक्षेम पूछने की पारस्परिक औपचारिकता के पश्चात चोक्षा परिवाजिका ने राजा के अन्तःपुर में शौच, दान और तीर्थाभिषेक के सम्बन्ध में उपदेश दिया। उस समय अपने अन्तःपुर के विशाल परिवार और एक सहस्र सुमुखी सर्वांग सुन्दरी रानियों के रूप, लावण्य एवं अनमोल वस्त्रालंकारों को देख-देखकर जितशत्र मन ही मन अपने अतुल ऐश्वर्य पर गर्व का अनुभव कर रहा था। धर्मोपदेश की ममाप्ति के पश्चात् महाराजा जितशत्रु ने चोक्षा परिव्राजिका से प्रश्न किया-"देवानप्रिये परिवाजिके ! आप ग्राम, नगर आदि में परिभ्रमण करती हुई बड़े-बड़े ऐश्वर्यशाली राजाओं के अन्तःपुरों में भी जाया करती हैं। क्या आपने कहीं मेरे अन्तःपुर के समान किसी अन्य राजा का अन्तःपुर देखा है ?" महाराजा जितशत्र के प्रश्न को सुन कर चोक्षा परिवाजिका कुछ क्षणों तक हँसती रही। तत्पश्चात् उसने राजा को सम्बोधित करते हए कहा“राजन् ! आप भी संयोगवशात् समुद्र से किसी रूप में आये हुए मेंढक के समक्ष समुद्र की विशालता जानने के अभिप्राय से अपने कप में छलांगें मार-मार कर बार-बार प्रश्न पूछने वाले कपमण्डक जैसी ही बात कर रहे हैं। जिस प्रकार कूपमण्डूक समझता है कि जिस कूप में वह जन्मा और बड़ा हुआ है, संसार में उससे बड़ा और कोई कूप, जलाशय अथवा जलधि हो ही नहीं सकता, उसी प्रकार आप अपने अन्तःपुर को ही सर्वश्रेष्ठ अन्तःपुर समझते हुए यह प्रश्न पूछ रहे हैं । पांचालपति ! सावधान हो कर सुनो ! विदेह राज मिथिलेश महाराज कुम्भ की कन्या, महारानी प्रभावती की आत्मजा विदेह राजकन्या मल्लिकुमारी को हमने देखा है । मल्लिकुमारी संसार की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी है। वस्तुतः वह अनुपम है। किसी भी मानव कन्या को तो बात ही क्या, संसार की कोई परम सुन्दरी देवकन्या, नागकन्या भी रूप, लावण्य, यौवन आदि गुणों में मल्लिकुमारी के समक्ष तुच्छ प्रतीत होती है । राजन् ! सच कहती हूं, तुम्हारा यह समस्त अन्तःपुर परिवार विदेह राजकन्या मल्लिकुमारी के चरणांगुष्ठ के एक लाखवें अंश की भी समता नहीं कर सकता । उसके रूप के समक्ष आपका यह अन्तःपुर नगण्य और तुच्छ है ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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