________________
२७२
जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[पांचाल नरेश
चोक्षा परिवाजिका द्वारा की गई शौचमूलक धर्म की यह व्याख्या सुनकर भगवती मल्ली ने कहा- "हे परिवाजिके ! रुधिर से प्रलिप्त वस्त्र को यदि कोई व्यक्ति रुधिर से ही धोवे तो क्या वह शुद्ध या स्वच्छ हो जायगा ? कदापि नहीं । रुधिर से सने वस्त्र को रुधिर से धोने पर शुद्धि हो जाती है, इस बात को कोई साधारण से साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी नहीं मान सकता । रुधिर से लिप्त वस्त्र को रुधिर से धोने पर तो वस्तुतः वह और अधिक गंदा एवं रुधिर लिप्त होगा, और अधिक रक्तवर्ण होगा । ठीक इसी प्रकार चोक्षे! हिंसा, असत्य, अदत्तादान, मैथन, परिग्रह, मिथ्यादर्शन, शल्य आदि आदि पाप कर्मों से आत्मा कर्ममल से लिप्त होता है, वह अात्मा पर लगा हिंसा आदि पाप कर्म का मैल हिंसा-कारक जल-स्नान, यज्ञ-यागादि पापपूर्ण कार्यों से कदापि शुद्ध नहीं हो सकता।
जिस प्रकार रुधिर रंजित वस्त्र को सज्जी अथवा क्षारादि से प्रलिप्त कर उसे किसी पात्र में रख कर अग्नि से तपाया जाय और तत्पश्चात् उसे शुद्ध पानी से धोया जाय तभी वह वस्त्र शुद्ध और स्वच्छ-निर्मल होता है, उसी प्रकार हिंसा आदि पापकर्मों से प्रलिप्त आत्मा को सम्यक्त्व रूपी क्षार से लिप्त कर शरीर भाण्ड में तपश्चर्या की अग्नि से तपा कर संयम के विशुद्ध जल से धोने पर ही आत्मा कर्ममल रहित हो सकता है, न कि रुधिर रंजित वस्त्र को रुधिर से धो कर साफ करने के प्रयास तुल्य पापपंक से लिप्त आत्मा को जल-स्नान, यज्ञ, यागादि पाप पूर्ण कृत्यों द्वारा पवित्र करने के विनाशकारी प्रयास से ।"
मल्ली भगवती द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर वह चोक्षा परिव्राजिका शंका, कांक्षा, वितिगिच्छायुक्त और निरुत्तर हो गई । वह चुपचाप मल्ली भगवती की ओर देखती ही रह गई।
चोक्षा परिव्राजिका की इस प्रकार की हतप्रभ अवस्था देख कर मल्ली राजकुमारी को दासियों, परिचारिकाओं आदि ने अनेक प्रकार की भावभंगिमायें बना कर उसका उपहास किया । दासियों के इस प्रकार के व्यवहार से उसने अपने आपको अपमानित अनुभव किया। वह अपमान की ज्वाला से संतप्त और मल्ली भगवती के प्रति प्रद्वेष करती हुई प्रासाद से उठी और अपने मठ में आकर अपनी सभी परिव्राजिकाओं के साथ मिथिला से काम्पिल्यपूर की ओर प्रस्थित हुई । उसके अन्तर्मन में भगवती मल्ली के प्रति विद्वेषाग्नि भड़क उठी। कतिपय दिनों पश्चात वह काम्पिल्यपुर पहुंची और वहां वह राज्याधिकारियों. सार्थवाहों, श्रेष्ठियों और विभिन्न वर्गों के नागरिकों के समक्ष अपने शौचमूलक धर्म का उपदेश देने लगी।
कुछ समय पश्चात् एक दिन वह चोक्षा परिवाजिका अपनी अनेक शिष्याओं के साथ पांचालाधीश्वर जितशत्रु के अन्तःपुर में गई । उस समय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org