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को प्रतिबोध
भ० श्री मल्लिनाथ
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गार, पीढ़ी-प्रपीढ़ियों से परम्परागत सभी प्रकार के रोगों के घर, अस्थि, चर्म और मांसमय इस अशुचि के भण्डार शडनधर्मा, पतनधर्मा, विनश्वर प्रौदारिक शरीर में प्रतिदिन डाले गये अशन, पानादि चार प्रकार के मनोज्ञ आहार का पुद्गल परिणमन कितना घोर दुर्गन्धपूर्ण होगा, यह एक साधारण से साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति भी समझ सकता है ।
___ अतः हे देवानप्रियो ! इस शाश्वत सत्य को ध्यान में रखते हए तुम लोग मनुष्य-भव सम्बन्धी काम-भोगों में मत फँसो, सांसारिक कामभोगों में अनुराग, आसक्ति, तृष्णा, लोलुपता, गृद्धि और विमुग्धता मत रखो।
याद करो देवानुप्रियो ! हम सातों अपने इस मानव भव से पूर्व के तीसरे भव में, महाविदेह क्षेत्र के सलिलावती विजय की राजधानी वीतशोका नगरी में सात समवयस्क बालसखा, अनन्य मित्र राजपुत्र थे। हम सातों साथ ही जन्मे, साथ-साथ ही बढ़े, साथ-साथ ही बाल-क्रीड़ा में निरत रहे, साथसाथ ही हमने अध्ययन किया, साथ-साथ ही राज्योपभोग-सांसारिक सुखोपभोग
आदि किया और निमित्त पा हम सातों ही अनन्य मित्रों ने एक साथ श्रमण धर्म को दीक्षा ग्रहण की थी। हम सातों ही मित्र मुनियों ने साथसाथ समान तप करने का निश्चय किया था।
मैंने इस कारण स्त्री नामकर्म का बन्ध किया कि तुम छहों साथी मुनि यदि दो उपवासों की तपस्या का प्रत्याख्यान करते तो मैं तीन उपवासों की तपस्या कर लेता, तुम छहों यदि तीन उपवासों की तपस्या करते तो मैं चार उपवासों की तपस्या कर लेता। इस प्रकार मुनि जीवन की अपनी प्रारम्भिक साधना में मैं तुम छहों साथी मुनियों से किसी न किसी बहाने विशिष्ट तप करता रहा। इस कारण मैंने स्त्री नाम कर्म का बन्ध कर लिया। किन्तु अपने प्रारम्भिक साधना-जीवन के पश्चात् हम सबने विशुद्ध भाव से एक समान दुष्कर तपश्चरण किया। मैंने तीर्थंकर नाम-गोत्र-कर्म की महान् पुण्य प्रकृति का उपार्जन कराने वाले अर्हद्भक्ति आदि बीसों ही स्थानों की पुनः पुनः उत्कट भावना से आराधना की । उस कारण मैंने तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया । हम सातों ने घोर तपश्चरण द्वारा अपनी देहयष्टियों को केवल चर्म से आवृत अस्थिपंजरावशिष्ट बना दिया और अन्त में हमने देखा कि हमने धर्माराधन के साधन अपने अपने शरीर से पूरा सार ग्रहण कर लिया है, अब उसमें तपश्चरण करते हुए विचरण करने की शक्ति समाप्तप्राय हो चुकी है, तो हम सातों ही मुनियों ने चारु पर्वत पर जाकर संलेखनापूर्वक साथ-साथ ही पादपोपगमन संथारा किया और समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर हम सातों ही जयन्त नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुए। हम सातों ने ही जयन्त विमान में अपने देवभव के दिव्य भोगों का उपभोग किया । तुम छहों की जयन्त विमान
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