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________________ ५१४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास (बहुपुत्रिका देवी के रूप में का उपभोग करते हुए अनेक वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी सुभद्रा ने एक भी संतान को जन्म नहीं दिया क्योंकि वह बन्ध्या थी। __ संतति के अभाव में अपने आपको बड़ी अभागिन, अपने स्त्रीत्व और स्त्रीजीवन को निन्दनीय, अकिंचन और विडम्बनापूर्ण मानती हुई वह विचारने लगी कि वे माताएँ धन्य हैं, उन्हीं स्त्रियों का स्त्री-जीवन सफल और सारभूत है, जिनकी कुक्षि से उत्पन्न हुए कुसुम से कोमल बच्चे कर्णप्रिय 'माँ' के मधुर सम्बोधन से सम्बोधित करते हुए, संततिवात्सल्य के कारण दूध से भरे मातानों के स्तनों से दुग्धपान करते हुए, गोद, आँगन और घर भर को अपनी मनोमुग्धकारिणी बालकेलियों से सुशोभित और अपनी माताओं एवं परिजनों को हर्षविभोर कर देते हैं । इस तरह सुभद्रा गाथापत्नी अपनी बन्ध्यत्व से अत्यन्त दुखित हो रातदिन चिन्ता में घुलने लगी। एक दिन भगवान् पार्श्वनाथ की शिष्या प्रार्या सुव्रता की प्रार्यानों का एक संघाटक वाराणसी के विभिन्न कुलों में मधूकरी करता हुप्रा सुभद्रा के घर पहुँचा । सुभद्रा ने बड़े सम्मान के साथ उन साध्वियों का सत्कार करते हुए उन्हें अपनी सन्ततिविहीनता का दुखड़ा सुना कर उनसे सन्तान उत्पन्न होने का उपाय पूछा। ___आर्या ने उत्तर में कहा-"देवानुप्रिये ! हम श्रमणियों के लिए इस प्रकार का उपाय बताना तो दूर रहा, ऐसी बात सुनना भी वर्जित है । हम तो तुम्हें सर्व-दुखनाशक वीतरागधर्म का उपदेश सुना सकती हैं । सुभद्रा द्वारा धर्मश्रवण की रुचि प्रकट किये जाने पर आर्या ने उसे सांसारिक भोगोपभोगों की विडम्बना बताते हुए वीतराग द्वारा प्ररूपित त्यागमार्ग का महत्त्व समझाया। आर्याओं के मुख से धर्मोपदेश सुन कर सुभद्रा ने संतोष एवं प्रसन्नता का अनुभव करते हुए श्राविकाधर्म स्वीकार्य किया और अन्ततोगत्वा कालान्तर में संसार से विरक्त हो अपने पति की आज्ञा प्राप्त कर वह आर्या सुव्रता के पास प्रवजित हो गई साध्वी बनने के पश्चात् आर्या सुभद्रा कालान्तर में लोगों के बालकों को देख कर मोहोदय से उन्हें बड़े प्यार और दुलार के साथ खिलाने लगी। वह उन बालकों के लिए अंजन, विलेपन, खिलौने, प्रसाधन एवं खिलाने-पिलाने की सामग्री लाती, स्नान-मंजन, अंजन, बिंदी, प्रसाधन प्रादि से उन बच्चों को सजाती, मोदक आदि खिलाती और उन बाल-क्रीड़ानों को बड़े प्यार से देख कर अपने आपको पुत्र-पौत्रवती समझती हुई अपनी संततिलिप्सा को शान्त करने का प्रयास करती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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