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भगवान् श्री श्रेयांसनाथ
भगवान् श्री शीतलनाथ के पश्चात् ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ
पूर्वमव पुष्कर द्वीप के राजा नलिनगुल्म के भव में इन्होंने राज रोग की तरह राज्य भोग को छोड़कर ऋषि वज्रदन्त के पास दीक्षा ले ली और तीव्र तप से कर्मों को कृश करते हुए निर्मोह भाव से विचरते रहे।
वहां बीस स्थानों की आराधना कर तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन किया । अन्त समय में शुभ-ध्यान से आयु पूर्णकर नलिनगुल्म महाशुक्र कल्प में ऋद्धिमान देव हुए।
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भारतवर्ष की भूषणस्वरूपा, सिंहपुरी नगरी के अधिनायक महाराज विष्णु इनके पिता और सद्गुणधारिणी विष्णुदेवी इनकी माता थीं।
ज्येष्ठ कृष्णा षष्ठी के दिन श्रवण नक्षत्र में 'नलिनगुल्म' का जीव स्वर्ग से निकलकर माता विष्णु की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। माता ने उसी रात्रि में १४ महा शुभ-स्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण कर माता ने फाल्गुन कृष्णा द्वादशी को सूखपूर्वक पुत्ररत्न को जन्म दिया। आपके जन्म काल में सर्वत्र सूख, शांति और हर्ष का वातावरगा फैल गया ।
नामकरण बालक के जन्म से समस्त राजपरिवार और राष्ट्र का श्रेय-कल्याण हुना, अतः माता-पिता ने शुभ समय में बालक का गुणसम्पन्न नाम श्रेयांसनाथ रखा।
विवाह प्रोर राज्य बाल्यकाल में देव, दानव और मानव कुमारों के संग खेलते हुए जब प्रभु युवावस्था में प्रविष्ट हए तो पिता के प्राग्रह से योग्य कन्याओं के संग आपने पाणिग्रहण किया और इक्कीस लाख वर्ष के होने पर आप राज्य-पद के अधिकारी बनाये गये । ..
बयालीस लाख वर्ष तक आप मही-मंडल पर न्यायपूर्वक राज्य का.. संचालन करते रहे। १ जिनस्य मातापितरावुत्सवेन महीयसा, मभिधां श्रेयसि दिने, श्रेयांस इति चक्रतुः ।।४।११८६ त्रि० शलाका पु. च.
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