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वसुदेव का पूर्वभव भौर बाल्य] भगवान् श्री अरिष्टनेमि मुनि के उपदेश से विरक्त हो उसने मनि-दीक्षा स्वीकार की एवं ज्ञान-ध्यान और तप-संयम से साधना करने लगा। कठोर तप से अपने तिरस्कृत जीवन को उपयोगी बनाने के लिए उसने प्रतिज्ञा की कि किसी भी रोगी साधु की सूचना मिलते ही पहले उसकी सेवा करेगा, फिर अन्न ग्रहण करेगा। तपस्या से उसे अनेक लब्धियां प्राप्त थीं अतः रुग्ण साधुनों की सेवा के लिए उसे जिस वस्तु की आवश्यकता होती, वही मिल जाती थी। इस सेवा के कारण वह समस्त भरतखण्ड में महातपस्वी के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
उसकी सेवा की प्रशंसा स्वर्ग के इन्द्र भी किया करते थे। दो देवों द्वारा घणाजनक सेवा की परीक्षा करने पर भी नन्दीषेण विचलित नहीं हुए। निस्वार्थ साधुसेवा से इन्होंने महान् पुण्य का संचय किया।
__अन्त में कन्याओं द्वारा किये गये अपने तिरस्कार की बात यादकर उन्होंने निदान किया'-"मेरी तपस्या का फल हो तो मैं अगले मानव-जन्म में स्त्री-वल्लभ होऊ।" इसी निदान के फलस्वरूप नन्दीषेण देवलोक का भव कर अन्धकवृष्णि के यहां वसुदेव रूप से उत्पन्न हुआ।
वसुदेव का बाल्यकाल बड़ा सुखपूर्वक बीता । ज्योंही वे आठ वर्ष के हुए, कलाचार्य के पास रखे गये । बिशिष्ट बुद्धि के कारण अल्प समय में ही वे गुरु के कृपापात्र बन गये।
वसुदेव को सेवा में कंस जिस समय कुमार वसुदेव का विद्याध्ययन चल रहा था, उस समय एक दिन एक रसवणिक उनके पास एक बालक को लेकर पाया और कुमार से अभ्यर्थना करने लगा-"कुमार ! यह बोलक कंस प्रापकी सेवा करेगा, इसे माप अपनी सेवा में रखें।"
वसदेव ने रसवणिक की प्रार्थना स्वीकार करली और तब से कंस कुमार की सेवा में रहने लगा और उनके साथ विद्याभ्यास करने लगा। १ श्रीमद्भागवत में जो वसुदेव और नारद का संवाद दिया हुआ है, उसमें भी पूर्वभव में निदान किये जाने की झलक मिलती है । यथा :अहं किल पुरानन्तं, प्रजार्थों भुवि मुक्तिदम् । अपूजयं न मोक्षाय, मोहितो देवमायया ।। ८ ।। यथा विचित्र व्यसनाद्, भवद्भिर्विश्वतो भयात् । मुच्येम ह्यञ्जसवाद्धो, तथा न: शाधि सुव्रत ।। ६ ।।
[श्रीमद्भागवत्, स्कन्ध ११. अ० २] २ वसुदेव हिण्डी।
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