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________________ १०० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्सन किया। तदनन्तर उपस्थान शाला में पा राजसिंहासन पर आसीन हो उन्होंने कृतमाल देव के समान नृत्यमाल देव का प्रष्टाह्निक महोत्सव मनाने का आदेश दिया। पहले के अष्टाह्निक महोत्सव के समान ही यह महोत्सव भी मनाया गया। उस महोत्सव के पूर्ण होने पर महाराज भरत ने सुषेण सेनापतिरत्न को गंगा नदी, पूर्व में अवस्थित लघु खण्ड पर विजय प्राप्त करने की प्राज्ञा देते हुए कहा-"जिसकी सीमा पश्चिम में गंगानदी केपूर्व में लवण समुद्र, दक्षिण में वैताढ्य पर्वत और उत्तर में चल्लहिमवन्त पर्वत है, उस समस्त लघु खण्ड के सम, विषम आदि सभी भूभागों पर अधिकार कर वहां के शासकों से श्रेष्ठ रत्नादि की भेंट लेकर शीघ्र आओ।" महाराज भरत की आज्ञा पा सेनापति ने तत्काल गंगानदी के पूर्व में स्थित लघु खण्ड पर विजय प्राप्त करने के लिये सेना के साथ प्रयाण किया । चर्मरत्न की सहायता से सेना सहित गंगा महानदी को पार कर सेनापति ने गंगानदी से पूर्व में लवण समुद्र तक, दक्षिण में वैताढ्य पर्वत तक और उत्तर में चुल्लहिमवन्त पर्यन्त सम-विषम सभी प्रकार के भूभाग पर विजय अभियान करते हुए उस सम्पूर्ण लघु खण्ड पर अधिकार किया। वहां के छोटे-बड़े सभी शासकों को महाराज भरत के अधीन बना, उनसे बहुमूल्य और विपुल भेंट' लेकर सेनापति सुषेण सेना सहित गंगानदी को पार कर महाराज भरत की सेवा में लौटा । उसने हाथ जोड़कर भरत से निवेदन किया-"देव ! आपकी प्राज्ञा का अक्षरशः पालन कर लिया गया है। वहां के शासकों की ओर से प्राप्त हुई यह भेंट स्वीकार करें।" कतिपय दिनों के विश्राम के पश्चात् सुषेण सेनापति को बुलाकर महाराज भरत ने उन्हें खण्डप्रपात गफा के उत्तर दिशा के द्वार खोलने की आज्ञा दी । सेनापति ने अपने स्वामी की आज्ञा को शिरोधार्य कर तिमिस्रप्रभा के कपाटों के समान खण्डप्रपात गफा के द्वारों को खोलकर महाराज भरत को उनकी आज्ञा की अनुपालना से अवगत किया। तत्पश्चात् महाराज भरत ने तिमिस्रप्रभा की ही तरह खण्डप्रपात गफा में प्रवेश कर काकिणी रत्न से उस गफा की दोनों भित्तियों पर एक-एक योजन के अन्तर से कुल मिलाकर ४६ मण्डलों का आलेखन कर उसमें दिन के समान प्रकाश किया और वाद्धिक रत्न द्वारा निर्मित सेतु से खण्डप्रपात गुफा की उन्मग्नजला और निमग्नजला महानदियों को उत्तीर्ण कर उस गुफा के स्वतः ही खुले दक्षिणी द्वार से खण्डप्रपात गफा को पार किया। खण्डप्रपात गुफा से बाहर निकलकर महाराज भरत ने वाद्धिक रत्न से सेना के लिये पूर्ववत् विशाल स्कन्धावार और अपने लिये प्रासाद एवं पौषध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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