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और शिक्षा].
प्रथम चक्रवर्ती भरत
अष्टम भक्त तप था । अष्टम भक्त की तपस्या के पूर्ण होते ही गंगादेवी भरत के समक्ष भेंट लेकर उपस्थित हई। गंगादेवी ने हाथ जोड़कर भरत से कहा--- "देवानुप्रिय ! आपने भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है। मैं आपके राज्य में रहने वाली आपकी आज्ञाकारिणी किंकरी हूं। अतः मैं प्रीतिदान के रूप में आपको यह भेंट समर्पित कर रही हूं, आप इसे स्वीकार करें। यह कहते हुए गंगादेवी ने रत्नों से भरे एवं भांति-भांति के परम मनोहर अद्भुत चित्रों से चित्रित १००८ कुभ-कलश और दिव्य मणि, रत्नादि से जटित दो सोने के सिंहासन भरत को भेंट किये। भरत ने गंगादेवी द्वारा समर्पित भेंट को स्वीकार करते हुए उसका सत्कार-सम्मान करने के पश्चात् उसे विदा किया ।
गंगादेवी के चले जाने के पश्चात् भरत ने स्नानादि से निवृत्त हो अपने नौवें तेले के तप का पारण किया। तत्पश्चात् उपस्थानशाला में आ भरत पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर आसीन हुए। उन्होंने अठारह श्रेणि-प्रश्रेणियों के लोगों को बुला उन्हें अनेक प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करते हुए गंगादेवी का अष्टाह्निक महा महोत्सव मनाने का आदेश दिया। आठ दिन तक भांतिभांति की प्रतियोगिताओं, दंगलों, नाटकों, हास्य, विनोद, नृत्य, संगीत, उत्तमोत्तम षडरस अशन-पानादि का आनन्दोपभोग करते हुए सबने गंगादेवी का महा महोत्सव मनाया।
गंगादेवी के महोत्सव के सम्पन्न होने के पश्चात् चक्ररत्न आयुधशाला से निकलकर नभ भाग मार्गगा नदी के पश्चिमी तट से दक्षिण दिशा की खंडप्रपात गुफा की ओर बढ़ा । खंड प्रपात गुफा के पास सेना ने पड़ाव डाला। महाराज भरत ने खण्डप्रपात गुफा के अधिष्ठायक देव नैत्यमाल की आराधना के लिये पौषधशाला में प्रवेश कर डाभ के आसन पर बैठ अष्टम भक्त तप और पौषधवत किया। यह महाराज भरत का दसवां तेले का तप था । उन्होंने पौषध सहित अष्टमभक्त तप में नैत्यमाल देव का चिंतन किया। तपस्या के सम्पन्न होते होते नैत्यमाल देव भरत की सेवा में उपस्थित हुआ । उसने भी हाथ जोड़कर भरत से कृतमाल देव के समान ही निवेदन करते हुए कहा-“हे देवानुप्रिय ! आपने भरतक्षेत्र पर विजय प्राप्त की है। मैं आपके राज्य में रहने वाला आपका आज्ञाकारी किंकर हूं। कृपा कर आप मेरी यह भेंट प्रीतिदान के रूप में ग्रहण कीजिये।" यह कह कर उसने अलंकार करने योग्य कंकण आदि रत्नजटित आभूषणों आदि से परिपूर्ण अनेक भांड करण्ड आदि महाराज भरत को भेंट किये। उस भेंट को स्वीकार करते हुए भरत ने नत्यमाल देव का सत्कार सम्मान किया और कुछ ही क्षणों पश्चात् उसे आदर सहित विदा किया।
नृत्यमाल देव को विसर्जित करने के पश्चात् महाराज भरत ने स्नानादि से निवृत्त हो भोजनशाला में प्रवेश कर अपने दसवें तेले के तप का पारण
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