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________________ ६८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [उत्सर्पिणीकाल "उत्सर्पिणी काल का दुषमा-दुषम नामक प्रथम आरक अवसर्पिणीकाल के छठे आरे की तरह २१ हजार वर्ष का होगा । उसमें सब स्थिति उसी प्रकार की रहेगी जिस प्रकार की कि अवसर्पिणीकाल के छठे आरे में रहती है।" _ "उस प्रथम प्रारक की समाप्ति पर जब २१ हजार वर्ष का दुषम नामक दूसरा पारा प्रारम्भ होगा, तब शुभ समय का श्रीगणेश होगा । पुष्कर संवर्तक नामक मेघ निरन्तर सात दिन तक सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर मूसलाधार रूप में बरस कर पृथ्वी के ताप का हरण करेगा और फिर अन्यान्य मेघों से धान्य एवं औषधियों की उत्पत्ति होगी। इस प्रकार पुष्करमेघ, क्षीरमेघ, घृतमेघ, अमृतमेघ और रसमेघ सात-सात दिनों के अन्तर से अनवरत बरस कर सूखी धरती की तपन एवं प्यास बुझा कर उसे हरी भरी कर देंगे।" "भमि की बदली हई दशा देखकर गफावासी मानव गफाओं से बाहर प्रायेंगे और हरियाली से लहलहाती सस्यश्यामला धरती को देखकर हर्षविभोर हो उठेगे । वे लोग आपस में विचार-विमर्श कर मांसाहार का परित्याग कर शाकाहारी बनेंगे। वे लोग अपने समाज का नवगठन करेंगे और नये सिरे से ग्राम, नगर आदि बसायेंगे । शनैः-शनैः ज्ञान, विज्ञान, कला, शिल्प आदि की अभिवृद्धि होगी। २१ हजार वर्ष की अवधि वाले दषम नामक द्वितीय प्रारक की समाप्ति पर दुषमा-सुषम नामक तीसरा पारा प्रारम्भ होगा । वह बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का होगा। उस प्रारक के तीन वर्ष साढ़े आठ मास बीतने पर उत्सपिरगीकाल के प्रथम तीर्थंकर का जन्म होगा। उस ततीय प्रारक में २३ तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव और ६ प्रतिवासुदेव होंगे । उत्सपिणीकाल के इस दषमा-सूषम नामक पारे में अवसपिणीकाल के दुःषमा-सुषम नामक चतुर्थ प्रारे के समान सभी स्थिति होगी। अन्तर केवल इतना ही होगा कि अवसर्पिणीकाल में वर्ण, गन्ध, रूप, रस, स्पर्श, आयु, उन्सेध, बल, वीर्य आदि अनुक्रमशः अपकर्षोन्मुख होते हैं और उत्सर्पिणी में उत्कर्षोन्मुख । उत्सर्पिणीकाल का सुषमा-दुःषम नामक चतुर्थ प्रारक दो कोड़ाकोड़ी सागर का होगा । इस प्रारक के प्रारम्भ में उत्सर्पिणीकाल के चौबीसवें तीर्थंकर और बारहवें चक्रवर्ती होंगे ।' १ दूसरे पारे में ७ कुलकर होंगे, इस प्रकार का उल्लेख 'विविध तीर्थ कल्प' के २१ अपापा वृहत्कल्प' में है । स्थानांग में भी प्रथम तीर्थंकर को कुलकर का पुत्र बताया है। २ एक मान्यता यह भी है कि उत्सर्पिणीकाल के चतुर्थ प्रारक के प्रारम्भ में कुलकर होते हैं । यथा : "अण्णे पढंति । तिस्सेणं समाए पढ़मे तिभाये इमे पणरस कुलगरा समुप्पज्जिस्संति........ _ [जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्ष० २, प० १६४, शान्तिचन्द्र गणि] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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