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कालचक्र का वर्णन भगवान् महावीर
६८७ निरुत्साही, सत्त्वहीन, विकृत चेष्टा वाले, तेजहीन, निरन्तर शीत, ताप और उष्ण, रूक्ष एवं कठोर वायु से पीड़ित, धूलिधूसरित मलिन अंग वाले, अपार क्रोध, मान, माया, लोभ एवं मोह वाले, दुखानुबन्धी दु:ख के भोगी, अधिकांशतः धर्म-श्रद्धा एवं सम्यक्त्व से भ्रष्ट होंगे।"
"उन मनुष्यों का शरीरमान अधिक से अधिक एक हाथ के बराबर होगा, उनकी अधिक से अधिक आयु १६ अथवा २० वर्ष की होगी, बहुत से पुत्रों, न्यातियों और पौत्रों आदि के परिवार के स्नेहपाश में वे लोग प्रगाढ़ रूप से बँधे रहेंगे।"
"वैताढ्य गिरि के उत्तर-दक्षिण में गंगा एवं सिन्धु नदियों के तटवर्ती ७२ बिलों में, अर्थात् उत्तरार्द्ध भरत में गंगा और सिन्धु नदी के तटवर्ती ३६ बिलों में तथा उसी प्रकार वैताढ्य गिरि के दक्षिण में अर्थात् दक्षिणार्द्ध भरत में गंगा एवं सिन्धु नदियों के तटवर्ती ३६ बिलों में केवल बीज रूप में मनुष्य एवं पशुपक्षी आदि प्राणी रहेंगे।" |
___"उस समय गंगा एवं सिन्धु नदियों का प्रवाह केवल रथ-पथ के बराबर रह जायगा और पानी की गहराई रथचक्र की धुरी के बराबर होगी। दोनों नदियों के पानी में मछलियों और कमों का बाहुल्य होगा और पानी कम होगा। सूर्योदय और सूर्यास्त बेला में वे लोग बिलों के अन्दर से शीघ्र गति से निकलेंगे। इन नदियों में से मछलियों और कछुओं को पकड़ कर तटवर्ती बाल मिट्टी में गाड़ देंगे। रात्रि की कड़कड़ाती सर्दी और दिन की चिलचिलाती धूप में वे मिट्टी में गाड़ी हुई मछलियाँ और कछुए पक कर उनके खाने योग्य हो जायेंगे।
___ "इस तरह २१,००० वर्ष के छठे बारे में मनुष्य केवल मछलियों और कछुनों से अपना उदर-भरण करेंगे।"
"उस समय के निश्शील, निर्वत, गुणविहीन, मर्यादारहित, प्रत्याख्यानपौषध-उपवास प्रादि से रहित व प्राय: मांसभक्षी मनुष्य प्रायः नरक और तिर्यंच योनियों में उत्पन्न होंगे। इसी प्रकार उस समय के सिंह व्याघ्रादि पशु और ढंक, कंक आदि पक्षी भी प्रायः नरक और तियंच योनियों में उत्पन्न होंगे।"
उत्सपिणीकाल "अवसर्पिणीकाल के दुषमा-दुषम नामक छठे आरे की समाप्ति पर उत्कर्षोन्मुख उत्सर्पिणीकाल प्रारम्भ होगा। उस उत्सपिणीकाल में प्रवसर्पिणीकाल की तरह छ पारे प्रतिलोम रूप से (उल्टे क्रम से) होंगे।" १ भगवती शतक, शतक ७, उद्देशा ६ ।
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