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________________ भरत चक्रवर्ती प्रागमेतर साहित्य में भरत चक्रवर्ती की अनासक्ति और स्वरूप-दर्शन के सम्बन्ध में बड़े रोचक विवरण उपलब्ध होते हैं । जनमानस में " अनासक्ति " और "अनित्य - भावना" को उत्पन्न करने के लिए जो प्रयास उत्तरवर्ती आचार्यो ने किया है, उसकी सर्वथा उपेक्षा करना समुचित नहीं होगा । अतः उन आख्यानों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है । भरत की अनासक्ति : भारतवर्ष का एकछत्र सार्वभौम साम्राज्य पा कर भी भरत के मन में शान्ति नहीं थी । अपने निन्यानवे भाइयों को खो कर राज्यभोगों में उन्हें गौरवानुभूति नहीं हो रही थी, नश्वर राज्य के लिए अपने भाइयों के मन में जो श्रन्तर्द्वन्द्व उन्होंने उत्पन्न किया, उसके लिए उनके मन में खेद था । श्रतः सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के षट्खण्डों पर अखण्ड शासन करते हुए भी उनके मन में आसक्ति नहीं थी । एक समय भगवान् ऋषभदेव अपने शिष्य समूह के साथ विनीता नगरी के उद्यान में विराजमान थे। उस समय प्रभु की अमोघ दिव्य देशना में अध्यात्मसुधा की अविरल वृष्टि हो रही थी । सहस्रों सहस्रों सदेवासुर नर-नारी दत्तचित्त हो प्रभु के प्रवचनामृत का पान कर रहे थे । श्रोताओं में से किसी एक ने प्रभु से प्रश्न किया- "प्रभो ! चक्रवर्ती भरत किस गति में जायेंगे ?" प्रभु ने फरमाया- "मोक्ष में ।" प्रश्नकर्ता मन्द स्वर में बोल उठा - "अहो ! भगवान् के मन में भी पुत्र के प्रति पक्षपात है ।" यह बात भरत के कानों तक पहुंची । भरत ने सोचा- मेरे कारण भगवान् पर प्रक्षेप किया जा रहा है । इस व्यक्ति के मन में भगवद्वाणी में जो संदेह हुआ है, उसका मुझे समुचित उपाय से निराकरण करना चाहिये ।" यह सोच कर उन्होंने उस व्यक्ति को बुला कर कहा - " तेल से भरा हुना एक कटोरा ले कर विनीता के सब बाजारों में घूम आश्रो । स्मरण रहे, यदि कटोरे में से तेल की एक बूंद भी नीचे गिरा दी तो तुम फांसी के तख्ते पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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