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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ शालिग्राम निवासियों
ही दूसरा नाम सम्यग्दर्शन है। इनमें आस्था न रख कर रागद्वेष वाले कुदेव, कुगुरु एवं धर्म में श्रद्धा रखना, इनमें धर्म मानना मिथ्यात्व कहलाता है । मिथ्यात्व का पर्यायवाची अर्थात् दूसरा नाम मिथ्यादर्शन है ।
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जिस प्रकार वीतराग, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हितोपदेष्टा, शुद्ध धर्म का प्ररूपण करने वाले देव ही वास्तव में सुदेव हैं, उसी प्रकार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पांच महाव्रतों को जीवनपर्यन्त पालने वाले, निरन्तर सामायिक - चारित्र की प्राराधना करने वाले, समय पर प्राप्त सरसनीरस अथवा शुष्क, निर्दोष भिक्षा से जीवन-निर्वाह करने वाले शान्त, दान्त, निर्लोभी, धैर्यशाली और विशुद्ध धर्म का उपदेश करने वाले गुरु ही सद्गुरु हैं ।
उसी प्रकार शुद्ध धर्म भी वही है, जो दुर्गति में गिरते हुए जीवों को उस मार्ग से हटा कर सद्गति के पथ पर लगावे । राग-द्वेष से रहित वीतराग सर्वज्ञ - सर्वदर्शी, विश्वबन्धु, जगत्पूज्य प्ररिहंत भगवन्तों द्वारा बताया हुआ धर्म ही मोक्ष प्रदान करने वाला है ।
सम्यक्त्व की पहचान —-शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था अर्थात् आस्तिक्य - इन पांच लक्षरणों से होती है । सम्यक्त्व से विचलित होते हुए स्वधर्मी बन्धुओं को सम्यक्त्व में स्थिर करना, प्रभावना, भक्ति, जिनशासन में कुशलता और चतुविध तीर्थ की सेवा - ये पांच गुरण सम्यक्त्व के भूषण हैं । इसके विपरीत शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्या दृष्टि की प्रशंसा और मिथ्या दृष्टि से परिचय - संसर्ग - ये पांच ग्रवगुरण सम्यक्त्व के दूषरण हैं, सम्यग्दर्शन को दूषित करने वाले हैं ।
सम्यग्दर्शन और जैनधर्म के स्वरूप को अपनी पत्नी से अच्छी तरह समझ कर शुद्धभट्ट बड़ा प्रसन्न हुआ । उसने भी सम्यक्त्वरत्न प्राप्त किया । इस प्रकार शुद्धभट्ट और सुलक्षरणा- दोनों ही पति-पत्नी सम्यक्त्वधारी बन कर जैनधर्म का पालन करने लगे । कालान्तर में सुलक्षणा ने एक पुत्र को जन्म दिया | पति-पत्नी दृढ़ आस्था के साथ श्रावकधर्म का पालन करते हुए सुखपूर्वक अपना जीवन-यापन करने लगे । उस गांव के ब्राह्मण उन दोनों पति-पत्नी को श्रावकधर्म का पालन करते हुए देख कर उनकी निन्दा करने लगे कि इन्होंने कुल क्रमागत धर्म को छोड़ दिया है और ये श्रावकधर्म का पालन कर रहे हैं ।
सर्दी के दिनों में प्रातःकाल एक बार शुद्धभट्ट अपने पुत्र को लिये "धर्म श्रग्निष्टिका" के पास गया, जहां अनेक ब्राह्मण अग्नि के चारों ओर बैठे ताप रहे थे । शुद्धभट्ट को अपने पास आया हुआ देख कर वे लोग बोले- “तुम श्रावक हो, अतः तुम्हारे लिये हमारे यहाँ कोई स्थान नहीं है ।" यह कह कर वे लोग उस “धर्म-अंगीठी” को चारों ओर से इस प्रकार घेरते हुए बैठ गये कि शुद्धभट्ट
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