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________________ का उद्धार भ० अजितनाथ १५६ एकाकिनी और वैरागिनी की तरह रहने लगी । उसे संसार के किसी कार्य में रस की कोई अनुभूति नहीं हो रही थी। उन्हीं दिनों उसके पूर्वकृत पुण्यों के उदय से विपूला नाम की एक प्रतिनी दो अन्य साध्वियों के साथ उस ग्राम में वर्षावास हेतु आई और सुलक्षणा से वर्षाकाल में रहने के लिये उसके घर में एक स्थान मांग कर रहने लगी । सुलक्षणा प्रतिदिन बड़ी रुचि से प्रवतिनीजी के धर्मोपदेशों को सुनने लगी। प्रतिनीजी के धर्मोपदेशों को सुनने से सुलक्षणा की धर्म के प्रति रुचि जाग्रत हुई। उसकी मिथ्यात्व की पत दूर हुई तो उसके अन्तस्तल में सम्यक्त्व प्रकट हुआ । सुलक्षणा ने जीव, अजीव आदि तत्वों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया। उसने संसार सागर से पार उतारने वाले जिनोपदिष्ट शाश्वत धर्म जैन धर्म को अंगीकार किया। इससे उसके कषायों का उपशमन हुआ और विषयों के प्रति उसके मन में विरक्ति, अरुचि हुई । जन्म-मरण की परम्परा से उसे भय का अनुभव होने लगा । षड्जीवनिकाय के प्रति उसके अन्तर में अनुकम्पा उत्पन्न हुई और परलोक के अस्तित्व के सम्बन्ध में उसे पूर्ण आस्था हो गई । सम्पूर्ण चातुर्मास काल उसने अनवरत निष्ठा के साथ साध्वियों की सेवासुश्रूषा करते हुए व्यतीत किया । वर्षावास की समाप्ति पर साध्वियों ने सुलक्षणा को बारह अरणवतों का नियम ग्रहण करवा कर श्राविका बनाया और वहां से अन्यत्र विहार किया। साध्वियों के विहार करने के पश्चात् विदेश में उपाजित विपुल धनराशि के साथ शूद्धभट्ट भी शालिग्राम में लौट आया। पति के आगमन से सुलक्षणा परम प्रसन्न हुई । शुद्धभट्ट ने पूछा-"शुभे ! मेरे वियोग में तुम्हारा समय किस प्रकार वीता?" सुलक्षणा ने उत्तर दिया-"प्रियतम ! मैं आपके वियोग से पीड़ित थी उसी समय गणिनीजी यहां पधार गई । उनके दर्शन से आपके विरह का दुःख शान्त हो गया । गणिनीजी ने चार मास तक यहां अपने घर में विराज कर इसे पवित्र किया । मैंने उनसे सम्यक्त्वरत्न प्राप्त कर अपना जन्म सफल किया। शुद्धभट्ट ने जिज्ञासा व्यक्त की-“सम्यक्त्व किसे कहते हैं, कैसा होता है वह ?" सुलक्षणा ने वीतराग जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित विश्वकल्याणकारी शाश्वत धर्म का स्वरूप अपने पति को समझाते हुए कहा-"राग-द्वषादि समस्त दोषों को नष्ट कर वीतराग बने त्रिलोकपूज्य, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी अरिहन्त प्रभ द्वारा प्ररूपित जैन धर्म को स्वीकार कर सुदेव में देवबुद्धि रखना, सद्गुरु में गुरु-बुद्धि रखना, विश्व-कल्याणकारी शुद्ध धर्म में धर्मबुद्धि रखना और इन तीनों-सुदेव, सद्गुरु और शुद्ध धर्म के प्रति अटल श्रद्धा रखना ही सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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