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का उद्धार
भ० अजितनाथ
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के लिये वहां बैठने को किंचिन्मात्र भी स्थान नहीं रहा । तदनन्तर अट्टहास कर उन लोगों ने शुद्धभट्ट का उपहास किया। उन लोगों के इस प्रकार के तिरस्कारपूर्ण व्यवहार से प्रतिहत हो...ट्ट ने क्रोधावेश में उच्च स्वर से कहा-'यदि जिनधर्म संसार-सागर से पार उतारने वाला नहीं हो, यदि अर्हत, तीर्थंकर और सर्वज्ञ नहीं हों, यदि सम्यक् ज्ञान-दर्शन और चारित्र मोक्ष का मार्ग नहीं हो और यदि सम्यक्त्व नाम की कोई वस्तु ही संसार में नहीं हो तो मेरा यह पुत्र इस अग्नि में जल जाय, और यदि ये सब हैं, तो इसके एक रोम को भी आंच न आये।" यह कहते हए शुद्धभट्ट ने अपने पुत्र को खैर के जाज्वल्यमान अंगारों से भरी उस विशाल वेदी में फेंक दिया।
यह देख कर वहां बैठे हुए सभी लोग एक साथ हाहाकार और कोलाहल करते हुए उठे और आक्रोशपूर्ण उच्च स्वर में चिल्लाने लगे- "हाय, हाय ! इस अनार्य ने अपने पुत्र को जला दिया है।"
पर ज्योंही उन्होंने वेदिका की ओर दृष्टिपात किया तो वे सभी आश्चर्याभिभूत हो अवाक्-स्तब्ध रह गये । उनके आश्चर्य का कोई पारावार ही नहीं रहा । उन्होंने देखा कि वेदी में जहां कुछ ही क्षण पूर्व ज्वालामालाओं से प्राकुल अग्नि प्रज्वलित हो रही थी, वहां अग्नि का नाम तक नहीं है । अग्नि के स्थान पर एक पूर्ण विकसित कमल का अति सुन्दर पुष्प सुशोभित है और उस पर वह बालक खिलखिलाता हुआ बालक्रीड़ा कर रहा है । कोलाहल सहसा शान्त हो गया। वहां उपस्थित सभी लोग परम आश्चर्यान्वित मुद्रा में इस अद्भुत चमत्कार को अपलक दृष्टि से देखते ही रह गये ।
वास्तव में हा यों कि जिस समय शुद्धभट्ट ने क्रुद्ध हो अपने पुत्र को प्रज्वलित अग्नि से पूर्ण वेदिका में डाला, उस समय सम्यक्त्व के प्रभाव को प्रकट करने में सदा तत्पर रहने वाली पास ही में कहीं रही हई व्यन्तर जाति की देवी ने बड़ी ही तत्परता से अग्नि को तिरोहित कर वेदिका में विशाल कमलपुष्प की रचना कर उस बालक की अग्नि से रक्षा की । वह व्यन्तरी पूर्व जन्म में एक माध्वी थी। श्रमणधर्म की विराधना करने के फलस्वरूप वह माध्वी मर कर व्यन्तरी हुई । व्यन्तर जाति में देवी रूप से उत्पन्न होने के के पश्चात उमने एक दिन एक केवली प्रभु से प्रश्न पूछा कि वह व्यन्तरी किस कारण बनी? केवली ने कहा-"श्रामण्य की विराधना के. कारण तुम व्यन्तर योनि में उत्पन्न हुई हो । तुम सुलभ-बोधि हो किन्तु तुम्हें सदा सम्यक्त्व के विकास के लिये सरल भाव से समुद्यत रहना चाहिये।"
केवली के वचन सुनने के पश्चात् वह व्यन्तरदेवी सदा सम्यक्त्व के प्रभाव को प्रकट करने में तत्पर रहती । शुद्धभट्ट द्वारा अपने पुत्र को अग्नि में फेंके
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