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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [संवर्द्धन एक दिन प्रातःकाल चक्रवर्ती भरत स्नान, गन्धमर्दन आदि के पश्चात् दिव्य वस्त्राभूषणालंकारादि से अलंकृत हो शरद पूर्णिमा के चन्द्र समान प्रियदर्शनीय बन कर स्नानागार से निकले और अपने इन्द्र भवन तुल्य शीश महल में गये । वहां वे अपने सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख किये बैठ गये और उस आरिसा भवन में अपना रूप निरखने लगे । उस समय अपना रूप देखतेदेखते उनके अन्तर्मन में शुभ परिणाम प्रकट हुए । शुभ परिणामों, प्रशस्त अध्यवसाय एवं विशुद्ध लेश्या से प्रात्म-गवेषणा करते-करते वे मतिज्ञानावरण कर्म के क्षय से अपने प्रात्मा पर लगे कर्मरज को पृथक करने लगे। इस प्रकार कर्मरज को पृथक करते-करते उन्होंने अपूर्वकरण में प्रवेश किया। अपूर्वकरण में प्रवेश करते हुए उन्हें अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण प्रतिपूर्ण केवल ज्ञान एवं केवल दर्शन उत्पन्न हुआ । वे भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों काल के सम्पूर्ण लोक के समस्त पर्यायों को जानने वाले और देखने वाले केवली बन गये । भरत केवली ने स्वयमेव समस्त प्राभरणों एवं प्रलंकारों को उतारा और स्वयमेव पंच मुष्टि लुचन किया। भरत केवली आरिसा भवन में से निकले और अपने अन्तःपुर के मध्यभाग में होते हुए बाहर निकल कर दस हजार राजामों को प्रतिबोघ दे श्रमणधर्म में दीक्षित किया। उन दस हजार मुनियों के साथ वे विनीता नगरी के मध्यवर्ती पथ से विनीता नगरी से बाहर निकल कर मध्य देश में सुख पूर्वक विचरने लगे। लगभग एक लाख पूर्व तक विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करने के पश्चात् वे अष्टापद पर्वत के पास पाये । वे अष्टापद पर्वत पर शनैः शनैः चढ़े । अष्टापद पर्वत पर उन्होंने एक पृथ्वी-शिलामट्ट की प्रतिलेखना की। उस शिला पर संलेखना-झूसना सहित भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर उन्होंने पादपोपगमन संथारा किया । काल की कामना रहित वे पादपोपगमन संथारे में स्थिर रहे । वे भरत केवली सतहत्तर लाख पूर्व तक कुमारावस्था में रहे । कुमारावस्था के पश्चात् एक हजार वर्ष तक माण्डलिक राजा के पद पर रहे। तदनन्तर एक हजार वर्ष न्यून छह लाख पूर्व तक चक्रवर्ती पद पर रहे । इस प्रकार कुल मिला कर तियासी लाख पूर्व तक गहवास में रहे । पारिसा भवन में शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध लेश्या से प्रात्म-गवेषणा में लीन होने के समय से केवलज्ञान-केवलदर्शन प्रकट होने के अन्तर्मुहूर्त जैसे समय तक न के चक्रवर्ती के पद से सम्बन्धित रहे, न श्रमण पर्याय से और न केवली पर्याय से ही। प्रत: उस समय को छोड़ कर उन्होंने कुछ कम एक लाख पूर्व तक केवली पर्याय का पालन किया एवं उतने ही समय तक प्रतिपूर्ण श्रमण पर्याय का पालन किया। इस प्रकार मब मिला कर ८४ लाख पूर्व का प्रायष्य पूर्ण कर एक मास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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