________________
गोशालक का प्रागमन]
भगवान् महावीर
समान प्राजीवक मत में सर और महाकल्प का प्रमाण बतलाया है। एक लाख सत्तर हजार छः सौ उनचास (१७०६४९) गंगानों का एक सर मानकर सौसो वर्ष में एक-एक बालुका निकालते हुए जितने समय में सब खाली हो उसको एक सर माना है । वैसे तीन लाख सर खाली हों तब महाकल्प माना गया है।'
गोशालक ने प्रभु को पुनः सम्बोधित करते हुए कहा :
"मार्य काश्यप ! मैंने कुमार की प्रव्रज्या में बालवय से ही ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने की इच्छा की और प्रव्रज्या स्वीकार की । मैंने निम्न प्रकार से सात प्रवृत्तपरिहार किए, यथा ऐणेयक, मल्लाराम, मंडिक, रोहक, भारद्वाज, अर्जुन गौतमपुत्र और गौशालक मंखलिपुत्र ।"
_ "प्रथम शरीरान्तरप्रवेश राजगह के बाहर मंडिकुक्षि चैत्य में उदायन कौडिन्यायन गोत्री के शरीर का त्यागकर ऐणेयक के शरीर में किया । बाईस वर्ष वहां रहा । द्वितीय शरीरान्तरप्रवेश उद्दण्डपुर के बाहर चन्द्रावतरण चैत्य में ऐणेयक के शरीर का त्याग कर मल्लराम के शरीर में किया । २१ वर्ष तक उसमें रह कर चंपानगरी के बाहर अंग मन्दिर चैत्य में मल्लराम का शरीर छोड़ कर मंडिक के देह में तीसरा शरीरान्तर प्रवेश किया। वहां बीस वर्ष तक रहा। फिर वाराणसी नगरी के बाहर काम महावन चैत्य में मंडिक के शरीर का त्याग कर रोहक के शरीर में चतुर्थ शरीरान्तर प्रवेश किया। वहां २६ वर्ष रहा । पाँचवें में प्रालंभिका नगरो के बाहर प्राप्त-काल चैत्य में रोहक का शरीर छोड़कर भारद्वाज के शरीर में प्रवेश किया । उसमें १८ वर्ष रहा. । छठी बार वैशाली के बाहर कुडियायन चैत्य में भारद्वाज का शरीर छोड़कर गौतमपुत्र अर्जुन के शरीर में प्रवेश किया। वहां सत्रह वर्ष तक रहा। वहां से इस बार श्रावस्ती में हालाहला कुम्हारिन के कुभकारापरण में गौतमपुत्र का शरीर त्यागकर गोशालक के शरीर में प्रवेश किया । इस प्रकार पायं काश्यप ! तुम मुझको अपना शिष्य मंखलिपुत्र बतलाते हो, क्या यह ठीक है ?"
गोशालक की बात सुन कर महावीर बोले-"गोशालक ! जैसे कोई चोर बचाव का साधन नहीं पाकर तण की आड़ में अपने को छिपाने की चेष्टा करता है, किन्तु वह उससे छिप नहीं सकता, फिर भी अपने को छिपा हुआ मानता है। उसी प्रकार तू भी अपने आपको शब्दजाल से छिपाने का प्रयास कर रहा है। तू गोशालक के सिवाय अन्य नहीं होते हुए भी अपने को अन्य बता रहा है, तेरा ऐसा कहना ठीक नहीं, तू ऐसा मत कह ।"
भगवान् की बात सुनकर गोशालक अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और आक्रोशपूर्ण वचनों से गाली बोलने लगा। वह जोर-जोर से चिल्लाते हुए तिरस्कारपूर्ण १ भग० श० १५, उ० १, सूत्र ५५०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org