________________
६३५
जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[गोशालक का प्रागमन
शब्दों में बोला-"काश्यप ! तुम आज ही नष्ट, विनष्ट व भ्रष्ट हो जानोगे । आज तुम्हारा जीवन नहीं रहेगा । अब मुझसे तुमको सुख नहीं मिलेगा।"
सर्वानुभूति के वचन से गोशालक का रोष भगवान् महावीर वीतराग थे । उन्होंने गोशालक की तिरस्कारपूर्ण बात सुनकर भी रोष प्रकट नहीं किया। अन्य मुनि लोग भी भगवान् के सन्देश से चुप थे । पर भगवान् के एक शिष्य 'सर्वानुभूति' अनगार, जो स्वभाव से सरल एवं विनीत थे, उनसे यह नहीं सहा गया। वे भगवद्भक्ति के राग से उठकर गोशालक के पास आए और बोले-"गोशालक! जो गणवान श्रमरण माहरण के पास एक भी धार्मिक सुवचन सुनता है, वह उनको वन्दन-नमन और उनकी सेवा करता है । तो क्या, तुम भगवान् से दीक्षा-शिक्षा ग्रहण कर उनके साथ ही मिथ्या एवं अनुचित व्यवहार करते हो? गोशालक ! तुमको ऐसा करना योग्य नहीं है । आवेश में आकर विवेक मत छोड़ो।"
सर्वानुभूति की बात सुनकर गोशालक तमतमा उठा। उसने क्रोध में भरकर तेजोलेश्या के एक ही प्रहार से सर्वानुभूति अरणगार को जलाकर भस्म कर दिया और पूनः भगवान के बारे में निन्दा वचन बोलने लगा। प्रभु के अन्य अन्तेवासी स्थिति को देखकर मौन थे, किन्तु अयोध्या के 'सुनक्षत्र' मुनि ने, जो उसके अपलाप सुने, तो उनसे भी नहीं रहा गया। उन्होंने गोशालक को कटवचन बोलने से मना किया। इससे रुष्ट होकर गोशालक ने सूनक्षत्र मुनि पर भी उसी प्रकार तेजोलेश्या का प्रहार दिया। इस बार लेश्या का तेज मन्द हो गया था। पीड़ा की भयंकरता देखकर सुनक्षत्र मुनि श्रमण भगवान् महावीर के पास पाए और वन्दना कर भगवान् के चरणों में आलोचनापूर्वक उन्होंने पुनः महाव्रतों में प्रारोहण किया और फिर श्रमण-श्रमणियों से क्षमा-याचना कर समाधिपूर्वक कालधर्म को प्राप्त किया।
गोशालक फिर भी भगवान महावीर को अनर्गल कटुवचन कहता रहा। कुछ काल के बाद भगवान महावीर ने सर्वानुभूति की तरह गोशालक को समझाया, पर मूों के प्रति उपदेश क्रोध का कारण होता है, इस उक्ति के अनुसार गोशालक प्रभु की बात से अत्यधिक क्रुद्ध हुआ और उसने उनको भस्म करने के लिए सात पाठ कदम पीछे हटकर तेजोलेश्या का प्रहार किया। किन्तु महावीर के अमित तेज के कारण गोशालक द्वारा प्रक्षिप्त तेजोलेश्या उन पर असर नहीं कर सकी। वह भगवान् की प्रदक्षिणा करके एक बार ऊपर उछली और गोशालक के शरीर को जलाती हुई, उसी के शरीर में प्रविष्ट हो गई।
गोशालक अपनी ही तेजोलेश्या से पीड़ित होकर श्रमण भगवान् महावीर से बोला-"काश्यप ! यद्यपि अभी तुम बच गए हो किन्तु मेरी इस तेजोलेश्या से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org