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________________ २५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महाबल का भावित करते हए अप्रतिहत विहार से विचरण करने लगे। कालान्तर में सन सातों ही साथी मुनियों ने परस्पर विचार-विमर्श के पश्चात् यह प्रतिज्ञा की कि वे सातों साथ साथ एक समान तपस्याएं करते हए विचरण करेंगे । अपनी इस प्रतिज्ञाके अनसार वे सातों ही मनि एक दूसरे के समान चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्ट भक्त प्रादि तपस्याए साथ-साथ करते हुए विचरण करने लगे । तदनन्तर उस महाबल अरणगार ने इस कारण स्त्री नामकर्म का उपार्जन कर लिया कि जब उसके साथी छहों मुनि चतुर्थ भक्त तप करते तो वह महाबल षष्ठभक्त तप कर लेता । यदि उसके छहों साथी मुनि षष्ठ भक्त तप करते तो वह महाबल अरणगार अष्टम भक्त तप कर लेता । इसी प्रकार वे छहों प्रणगार यदि अष्टम भक्त तप करते तो महाबल दशमभक्त तप करता और वे छहों अरणगार यदि दशम भक्त तप करते तो महाबल अरणगार द्वादश भक्त तप अर्थात् पाँच उपवास का तप करता। इस प्रकार अपने छहों मित्रों के साथ संयुक्त रूप से की गई समान तपस्या करने की अपनी प्रतिज्ञा के उपरान्त भी अपने मित्रों को अपने अन्तर्मन का भेद न देते हुए उनसे अधिक तपस्या करते रहने के कारण स्त्री नामकर्म का बन्ध कर लेने के पश्चात् मुनि महाबल ने अर्हद्भक्ति (१), सिद्ध भक्ति (२), प्रवचन भक्ति (३), गरु (४), स्थविर (५), बहुश्रुत (६), तपस्वी इन चारों की वात्सल्य सहित सेवा भक्ति के साथ उनके गुणों का उत्कीर्तन (७), ज्ञान में निरन्तर उपयोग (८), सम्यक्त्व की विशुद्धि (६), गुरु प्रादि व गणवानों के प्रति विनय (१०), दोनों संध्या विधिवत् षड़ावश्यक करना (११), शील और व्रतों का निर्दोष पालन (१२), क्षण भर भी प्रमाद न करते हुए शुभ ध्यान करना अथवा वैराग्य भाव की वृद्धि करना (१३), यथाशक्ति बारह प्रकार का तप करना (१४), त्याग-प्रभयदान, सुपात्रदान देना (१५) प्राचार्य आदि बड़ों की वैयावृत्य-शुश्रूषा करना (१६), प्राणिमात्र को समाधि मिले, इस प्रकार का प्रयास करना (१७), अपूर्व ज्ञान का अभ्यास करना (१८), श्रुतभक्ति अर्थात् जिनप्ररूपित आगमों में अनुराग रखना (१६) और प्रवचन प्रभावना अर्थात् संसार सागर में डबते हुए प्राणियों की रक्षा के प्रयास, समस्त जगत के जीवों को जिन शासन रसिक बनाने के प्रयास, मिथ्यात्व महान्धकार को मिटा सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार के प्रयास के.साथ-साथ करण सत्तरी तथा चरण सत्तरी की प्राराधना करते हुए जिनशासन की महिमा बढ़ाना (२०)इन बीस बोलों में से प्रत्येक की पुनः पुनः उत्कट माराधना, करते हुए तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म की उपार्जना की। तदनन्तर महाबल आदि उन सातों ही साथी श्रमणों ने भिक्ष की बारहों प्रतिमाओं को क्रमश: धारण किया। तदनन्तर उन महाबल प्रादि सातों ही महामनियों ने स्थविरों से प्राज्ञा लेकर लघु सिंहनिष्क्रीड़ित और महासिंह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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