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________________ जीवन वृत्त] भगवान् श्री मल्लिनाथ २५३ तक कि पारलौकिक हित साधना के दान, दया, धर्म से लेकर श्रमरणत्व अंगीकार करने तक के सभी कार्य साथ साथ ही करेंगे । कभी एक दूसरे से बिछुड़ेंगे नहीं । इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के पश्चात् वे ग्रामोद-प्रमोद, सुखोपभोग आदि सभी कार्य साथ-साथ करते हुए जीवन व्यतीत करने लगे । कालान्तर में एक दिन वीतशोका नगरी के बहिर्भाग में अवस्थित इन्द्रकुम्भ उद्यान में तपस्वी स्थविर श्रमणों के शुभागमन का शुभ संवाद सुनकर वे सातों मित्र उन स्थविरों के दर्शन एवं उपदेश श्रवरण के लिये उस उद्यान में गये । धर्मोपदेश सुनने के पश्चात् महाबल ने स्थविर श्रमणमुख्य की सेवा में उपस्थित हो निवेदन किया- "महामुने ! आपके उपदेश को सुनकर मुझे संसार से विरक्ति हो गई है । मैं अपने पुत्र को राज्यभार सँभला कर आपके पास श्रमरणधर्म की दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ ।" स्थविरमुख्य ने महाबल से कहा - " राजन् ! जिससे तुम्हें सुख हो, वही करो। अच्छे कार्य में प्रमाद मत करो ।" महाबल ने अपने अचल आदि छहों मित्रों के समक्ष निर्ग्रन्थ श्रमरणधर्म में दीक्षित होने का अपना विचार रखा । छहों मित्रों ने एक स्वर में महाबल से कहा - "देवानुप्रिय ! यदि तुम्हीं श्रमरणधर्म की दीक्षा ग्रहण कर रहे हो तो इस संसार में हमारे लिये और कौनसा आधार है और कौनसा आकर्षण अवशिष्ट रह जाता है। यदि आप प्रव्रजित होते हैं तो हम छहों भी आपके साथ ही प्रव्रजित होंगे ।" महाबल ने कहा- “यदि ऐसी बात है तो अपने-अपने पुत्रों को अपनेअपने राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त कर आप लोग शीघ्रतापूर्वक मेरे पास आ जाइये ।" अपने अनन्य सखा महाराज महाबल की बात सुनकर वे छहों मित्र बड़े प्रमुदित हुए । वे अपने अपने राजप्रासाद में गये । तत्काल ग्रपने अपने बड़े पुत्र को अपने अपने राजसिंहासन पर श्रासीन कर एक एक सहस्र पुरुषों द्वारा उठाई गई छह पालकियों में बैठ महाबल के पास लौट आये । महाराजा महाबल ने भी अपने पुत्र बलभद्र का राज्याभिषेक किया और वह एक हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली पालकी में प्रारूढ़ हो अपने मित्रों को साथ लिये स्थविरों के पास इन्द्रकुम्भ उद्यान में उपस्थित हुआ । तदनन्तर महाबल आदि सातों मित्रों ने अपना अपना स्वयमेव पंचमुष्टि लुचन कर उन स्थविर महामुनि के पास श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की । श्रमधर्म में दीक्षित होने के पश्चात् उन सातों ही मुनियों ने साथ साथ एकादशांगी का अध्ययन किया और वे अपनी श्रात्मा को संयम एवं तप द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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