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________________ २५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [महाबल का त्तम महामुनि ने भवतापहारिणी वीतरागवाणी का उपदेश दिया। महामुनि का उपदेश सुनकर महाराजा बल का. मानस वैराग्य रस से अोतप्रोत हो उठा। देशनान्तर विशाल परिषद् नगर की ओर लौट गई। महाराजा बल ने सांजलिक शोष झुका महामुनि से निवेदन किया-"भगवन् ! आपके मुखारविन्द से पवितथ वीतरागवाणी को सुनकर मुझे संसार से पूर्ण विरक्ति हो गई है । मैं अपने पुत्र को सिंहासनारूढ़ कर आत्महित साधना हेतु आपके पास श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूं।" महामनि ने कहा-"राजन ! जिसमें तुम्हें सूख प्रतीत हो रहा है, वही करो, उस सुखकर कार्य में किसी प्रकार का प्रमाद मत करो।" ___ महाराजा बल ने अपने राजप्रासाद में लौटकर अपने पुत्र महाबल का राज्याभिषेक किया और पुनः महास्थविरों की सेवा में उपस्थित हो उसने महामुनि के पास जन्म-मरण आदि संसार के सभी दुःखों का अन्त करने वाली भागवती दीक्षा अंगीकार की। बल मुनि ने एकादशांगी के गहन अध्ययन के साथ-साथ विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करते हुए अपनी आत्मा को भावित करना प्रारम्भ किया। उग्रतम तपश्चरण और 'स्व' तथा 'पर' का कल्याण करते हुए मुनि बल ने अनेक वर्षों तक पूर्ण निष्ठा और प्रगाढ़ श्रद्धा के साथ श्रामण्य पर्याय का पालन किया । अन्त में चारु पर्वत पर जाकर संलेखना, झूसना के साथ प्रशन-पानादि का पूर्णतः आजीवन प्रत्याख्यान कर संथारा किया । अन्त में उन्होंने एक मास के अनशन पूर्वक समस्त कर्मों का अन्त कर निर्वाण प्राप्त किया। उधर राज्य सिंहासन पर मारूढ़ होने के पश्चात् महाराजा महाबल ने न्याय और नीतिपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करना प्रारम्भ किया । कालान्तर में महाबल की महारानी कमलश्री ने एक प्रोजस्वी पुत्र को जन्म दिया। महाबल ने अपने उस पुत्र का नाम बलभद्र रखा । महाराजा महाबल ने अपने पुत्र बलभद्र को शिक्षा योग्य वय में सुयोग्य कलाचार्यों के पास शिक्षार्थ रखा और जब कुमार बलभद्र सकल कलामों में पारंगत हो गया तो उसे युवराज पद प्रदान किया। महाराजा महाबल के प्रचल, धरण, पूरण, वसु, वैश्रमण और अभिचन्द नामक छह समवयस्क बालसखा थे। महाबल, प्रचल मादि उन सातों मित्रों में परस्पर इतनी प्रगाढ़ मैत्री थी कि वे सदा साथ-साथ रहते, साथ-साथ ही उठते, बैठते, खाते, पीते और प्रामोद-प्रमोद करते थे । एक दिन महाबल प्रादि सातों मित्रों ने परस्पर वार्तालाप करते समय यह प्रतिज्ञा की कि वे जीवन भर साथसाथ रहेंगे । प्रामोद-प्रमोद, प्रशन, पान, मादि ऐहिक सुखोपभोग और यहाँ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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