________________
[पूर्वभव] भगवान् श्री मल्लिनाथ
२५१ में कहीं कोई सूक्ष्मातिसूक्ष्म शल्य भी प्रवेश न कर पाये, साधक अपने साधना जीवन में सतत सावधान व निरन्तर जागरूक रहकर निष्काम भाव से साधना में लीन रहे।
महाबल का जीवन वृत्त सुदीर्घ अतीत काल की बात है । उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र में मेरु पर्वत से पश्चिम, निषध पर्वत से उत्तर, महानदी शोतोदा से दक्षिण, सुखोत्पादक वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम एवं पश्चिमी लवरण समुद्र से पूर्व दिशा में सलिलावती नामक जो विजय है, उसमें वीतशोका नाम की नगरी थी। नौ योजन चौड़ी और १२ योजन लम्बी अलका तुल्य वीतशोका नगरी सलिलावती विजय की राजधानी थी। उस नगरी के बाहर ईशान कोण में इन्द्रकुम्भ नामक एक सुरम्य और विशाल उद्यान था। वीतशोका नगरी में बल नामक महाराजा था। बल महाराजा के अन्तःपुर में महारानी धारिणी आदि एक सहस्र रानियों का परिवार था।
। उस धारिणी महारानी ने एक रात्रि के अन्तिम प्रहर में, जबकि वह सुखपूर्वक सोयी हुई थी, अर्द्ध जागृतावस्था में एक स्वप्न देखा कि एक केसरी सिंह उसके मुख में प्रवेश कर रहा है। स्वप्नफल पूछने पर राजा और स्वप्न पाठकों ने बताया कि महारानी एक महान् प्रतापी पुत्र को जन्म देने वाली है। समय पर महारानी ने एक तेजस्वी पुत्र रत्न को जन्म दिया। राजा बल ने अपने उस पुत्र का नाम महाबल रखा। शिक्षायोग्य वय में सकल कलाओं में निष्णात होने के अनन्तर जब राजकुमार महाबल ने युवावस्था में प्रवेश किया तो महाराजा बल ने अपने पुत्र महाबल का एक ही दिन में कमलश्री आदि पांच सौ (५००) अनुपम रूप लावण्यमयी राजकन्याओं के साथ पारिणग्रहरण करवा दिया।
महाबल को कन्या पक्षों की ओर से दहेज में सांसारिक सुखोपभोग की उत्तमोत्तम विपूल सामग्री मिली। उसे दहेज में मिली प्रत्येक वस्तु की संख्या पांच सौ थी। युवराज महाबल के पिता महाराज बल ने अपनी पांच सौ ही पुत्रवधुओं के लिये पांच सौ भव्य प्रासाद बनवा दिये । विवाहोपरान्त युवराज महाबल सुरबालाओं के समान अनुपम रूप लावण्यवती ५०० युवराज्ञियों के साथ सभी प्रकार के उत्तमोत्तम सांसारिक भोगोपभोगों का उपभोग करते हुए सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगा।
कालान्तर में वीतशोका नगरी के बाहर ईशान कोण में अवस्थित इन्द्रकुम्भ नामक उद्यान में स्थविर मुनियों का आगमन हया। अपने परिजनों एवं पुरजनों के साथ महाराजा बल भी उन स्थविर मनियों के दर्शन एवं प्रवचनामृत का पान करने की उत्कंठा से इन्द्र कुम्भ नामक उद्यान में पहुंचा । स्थविरो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org