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२५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[पूर्वभव] उसके साथी मुनि महाबल से पारण न करने का कारण पूछते तो सही बात नहीं कहकर वह कभी शारीरिक तो कभी मानसिक ऐसा कारण बताकर बात को टाल देता कि उसके वे छहों साथी मुनि आश्वस्त हो उसकी बात मान जाते। उनके मन में किसी भी प्रकार की शंका नहीं रहती।
इस प्रकार तपश्चरण में महावल के मन में अपने साथियों से आगे रहने की, विशिष्ट रहने की अथवा बड़े रहने की आकांक्षा रही। शंका, आकांक्षा, वितिगिच्छा, पर पाषंड प्रशंसा और पर पाषंड संस्तव-यें सम्यक्त्व के पाँच दोष हैं। अहं वशात् बड़े रहने की आकांक्षा से महाबल का सम्यक्त्व दूषित हुआ। इस प्रकार अहं वशात् आकांक्षा और माया से अपने साथियों को, वस्तुस्थिति नहीं बताते हुए विशिष्ट प्रकार के तप करते रहने के कारण घोर तपस्वी होते हुए भी मुनि महाबल ने माया, छल छद्म के परिणामस्वरूप स्त्री नामकर्म का, अर्थात् स्त्रीवेद का बंध कर लिया।
“गहना कर्मणो गति:"-कर्मगति बड़ी विचित्र है। साधक अपनी साधना में जहां कहीं किंचितमात्र भी चका, साधना में प्रमादवश, अहंवश अथवा माया के वश हो अपनी साधना में कहीं लेशमात्र भी दोष को अवकाश दिया कि कर्म तत्काल अपना आधिपत्य स्थापित कर लेता है और उसका फल प्रदान करने के पश्चात ही पिण्ड छोड़ता है। चाहे कोई कितना ही बड़े से बड़ा साधक क्यों न हो, उसकी किसी भी त्रुटि को कर्म कभी क्षमा नहीं करता । उस त्रुटि का फल देकर ही त्रुटि करने वाले का पीछा छोड़ता है। सम्यक् तपश्चरण वस्तुतः विकटतम कर्मवन को भस्मावशेष कर देने में कल्पान्तकालीन कृशानु तुल्य है। किन्तु उस तपश्चरण में भी अहं को, माया को अवकाश दे देने के कारण आगे चलकर त्रिलोकपूजित महामहिम तीर्थकर नाम, गोत्र कर्म का उपार्जन कर लेने वाले महान् आत्मा महाबल मुनि ने भी अपने प्रारम्भिक साधनाकाल में स्त्री नाम कर्म का-स्त्रीवेद का बन्ध कर लिया। महामुनि महाबल ने स्त्रीवेद का बन्ध कर लेने के पश्चात जब सब प्रकार के शल्यों से रहित हो, अहं, आकांक्षा, माया प्रादि को अपने साधक जीवन में किंचिन्मात्र भी अवकाश न देते हुए विशुद्ध निष्काम भाव से अपने साथी मुनियों के साथ निष्काम घोर तपश्चरण करते हुए तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म की पुण्य प्रकृतियों का बन्ध कराने वाले बीस बोलों को आराधना उत्कट भावों से की तो उन्होंने संसार के सर्वोत्कृष्ट पद-तथिकर पद की पुण्यप्रकृतियों का उपार्जन कर लिया।
अतः महामुनि महाबल का जीवन प्रत्येक मुमुक्ष साधक के लिये बड़ा ही शिक्षाप्रद और प्रेरणाप्रदायी है। मुनि महाबल का जीवन प्रत्येक मुमुक्षु साधक के लिये पग-पग पर, प्रतिपल, प्रति क्षण सावधान करने वाला, सजग करने वाला दिशावबोधक प्रदीप-स्तम्भ है। वह प्रत्येक साधक को, उसके साधनाकाल में पूरी तरह जागरूक रहने की प्रेरणा देता है कि उसकी साधना
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