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भगवान् श्री मल्लिनाथ
अठारहवें तीर्थंकर भगवान् अरनाथ के निर्वारण के पश्चात् पचपन हजार वर्ष कम एक हजार करोड़ वर्ष व्यतीत हो जाने पर उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान् श्री मल्लिनाथ का जन्म हुआ ।
पूर्वभव
महाविदेह क्षेत्र के सलिलावती विजय में भगवान् मल्लिनाथ के जीव तीर्थंकर भव से पूर्व के अपने तीसरे भव महाबल के जीवन में पहले तो स्त्रीवेद का बन्ध और तदनन्तर तीर्थंकर गोत्र-नाम कर्म का उपार्जन किया । भगवान् मल्लिनाथ का पूर्व का यह तीसरा भव वस्तुतः प्रत्येक साधक के लिये बड़ा ही प्रेरणाप्रदायी और शिक्षादायक है ।
भगवान् मल्लिनाथ का जीव अपने तीसरे पूर्व भव में महाबल नामक महाराजा था । वह अपने छह बालसखा राजाओं के साथ श्रमधर्म में दीक्षित हुआ । द्वादशांगी का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात् महाबल श्रादि उन सातों ही अणगारों ने परस्पर विचार विनिमय के पश्चात् यह प्रतिज्ञा की कि वे सातों मुनि सदा साथ-साथ और समान तप करेंगे। उन सातों मित्र श्रमणों ने अपनी प्रतिज्ञानुसार साथ-साथ समान तप का प्राचरण प्रारम्भ भी कर दिया । तदनन्तर मुनि महाबल के मन में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए :
" इन छहों साथियों के साथ मैंने समान तपश्चरण की प्रतिज्ञा तो कर ली । पर वस्तुतः श्रमण जीवन से पूर्व में इन सब से ऋद्धि, समृद्धि, ऐश्वर्यं आदि में बड़ा रहा हूं, आगे रहा । ये छहों मेरे समकक्ष नहीं थे । मुझसे छोटे थे तो अब तपश्चरण में मैं इनके बराबर कैसे रहूं। अतः मुझे तपश्चरण में इनसे अत्यधिक उत्कृष्ट नहीं तो कम से कम थोड़ा बहुत तो विशिष्ट रहना ही चाहिये ।"
इस बड़प्पन के अहं ने मुनि महाबल के अन्तर्मन में माया को, छल-छद्म को जन्म दिया । उसने अपने साथियों से विशिष्ट प्रकार का तपश्चरण करना प्रारम्भ कर दिया । उसके छहों साथी षष्ठ भक्त तप करते तो महाबल अष्टमभक्त तप करता । वे प्रष्टमभक्त तप करते तो वह दशम भक्त तप करता । सारांश यह कि उसके छहों साथी जिस किसी प्रकार का छोटा अथवा बड़ा तप करते, उनसे वह महाबल मुनि विशिष्ट तप करता । अपने तप के पारण के दिन
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