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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[ अम्बड़ की चर्या
प्रतिरिक्त तांबा, सोना और चांदी आदि किसी धातु के पात्र नहीं रखता । गेरुश्रा चादर के प्रतिरिक्त किसी अन्य रंग के वस्त्र धाररण नहीं करता है । एक ताम्रमय पवित्रक को छोड़ कर किसी प्रकार का आभूषण धाररण नहीं करता । एक कर्णपूर के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार का पुष्पहार आदि का उपयोग भी नहीं करता । शरीर पर केसर, चन्दन आदि का विलेपन नहीं करता, मात्र गंगा की मिट्टी का लेप चढ़ाता है। आहार में वह अपने लिये बनाया हुआ, खरीदा हुआ और अन्य द्वारा लाया हुआ भोजन भी ग्रहण नहीं करता । उसने स्नान और पीने के लिये जल का भी प्रमारण कर रखा है । वह पानी भी छाना हुआ और दिया हुआ ही ग्रहण करता है । बिना दिया पानी स्वयं जलाशय से नहीं लेता ।"
अनेक वर्षो तक इस तरह साधना का जीवन व्यतीत कर श्रम्बड़ संन्यासी अन्त में एक मास के अनशन की आराधना कर ब्रह्मलोक-स्वर्ग में ऋद्धिमान् देव के रूप में उत्पन्न हुआ ।
अम्बड़ के शिष्यों ने भी एक बार जंगल में जल देने वाला नहीं मिलने से तृषा - पीड़ित हो गंगा नदी के तट पर बालुकामय संथारे पर श्राजीवन अनशन कर प्राणोत्सर्ग कर दिया और ब्रह्मकल्प में बीस सागर की स्थिति वाले देवरूप से उत्पन्न हुए । विशेष जानकारी के लिये औपपातिक सूत्र का अम्बड़ प्रकरण द्रष्टव्य है ।
कम्पिलपुर से विचरते हुए भगवान् वैशाली पधारे और यहीं पर वर्षाकाल व्यतीत किया ।
केवलचर्या का बीसवाँ वर्ष
वर्षाकाल समाप्त कर अनेक भूभागों में विचरण करते हुए प्रभु पुनः एक बार वारिणयग्राम पधारे । वारिणयग्राम के दूतिपलाश चैत्य में जब भगवान् धर्मदेशना दे रहे थे, उस समय एक दिन पार्श्व सन्तानीय 'गांगेय' मुनि वहाँ आये और दूर खड़े रहकर भगवान् से निम्न प्रकार बोले
“भगवन् ! नारक जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ?”
भगवान् ने कहा- “गांगेय ! नारक अन्तर से भी उत्पन्न होते हैं और बिना अन्तर के निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं ।"
इस प्रकार के अन्यान्य प्रश्नों के भी समुचित उत्तर पाकर गांगेय ने भगवान् को सर्वज्ञ रूप से स्वीकार किया और तीन बार प्रदक्षिणा एवं वन्दना कर उसने चातुर्याम धर्म से पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार किया । वे महावीर के श्रमरणसंघ में सम्मिलित हो गये ।'
१ भग०, ६ श, ५ उ० ।
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