SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहस्य का उद्घाटन] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३८७ उसके बाद अरिहन्त अरिष्टनेमि की अनुज्ञा प्राप्त होने पर हम जीवन भर के लिए निरन्तर बेले-बेले की तपस्या करते हुए विचरण करने लगे। इस प्रकार आज हम छहों भाई-बेले की तपस्या के पारण के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करने के पश्चात्-प्रभु अरिष्टनेमि की आज्ञा प्राप्त कर यावत् तीन संघाटकों में भिक्षार्थ उच्च-मध्यम एवं निम्न कुलों में भ्रमण करते हए तुम्हारे घर आ पहँचे हैं । अतः हे देवानप्रिये ! ऐसी बात नहीं है कि पहले दो संघाटकों में जो मनि तुम्हारे यहाँ आये थे वे हम ही हैं। वस्तुत: हम दूसरे हैं।" उन मनियों ने देवकी देवी को इस प्रकार कहा और यह कहकर वे जिस दिशा से आये थे उसी दिशा की ओर चले गये । इस प्रकार की बात कह कर मुनियों के लोट जाने के पश्चात् उस देवकी देवी को इस प्रकार का विचार यावत् चिन्तापूर्ण अध्यवसाय उत्पन्न हुमा : "पोलासपुर नगर में प्रतिमुक्त कुमार नामक श्रमरण ने मेरे समक्ष बचपन में इस प्रकार भविष्यवाणी की थी कि हे देवानुप्रिये देवकी ! तुम परस्पर पूर्णतः समान आठ पुत्रों को जन्म दोगी, जो नलकूबर के समान होंगे । भरतक्षेत्र में दूसरी कोई माता वैसे पुत्रों को जन्म नहीं देगी।" पर यह भविष्यवाणी मिथ्या सिद्ध हुई । क्योंकि यह प्रत्यक्ष ही दिख रहा है कि भरतक्षेत्र में अन्य माताओं ने भी सुनिश्चित रूपेरण ऐसे पूत्रों को जन्म दिया है । मनि की बात मिथ्या नहीं होनी चाहिये, फिर यह प्रत्यक्ष में उससे विपरीत क्यों ? ऐसी स्थिति में मैं अरिहन्त अरिष्टनेमि भगवान की सेवा में जाऊँ, उन्हें वंदन नमस्कार करूं और वंदन नमस्कार करके इस प्रकार के कथन के विषय में प्रभु से पूछू, इस प्रकार सोचा । ऐसा सोचकर देवकी देवी ने प्राज्ञाकारी पुरुषों को बलाया और बलाकर ऐसा कहा-"लघ कर्प वाले (शीघ्रगामी) श्रेष्ठ प्रांखों से युक्त रथ को उपस्थित करो।" आज्ञाकारी पुरुषों ने रथ उपस्थित किया । देवकी महारानी उस रथ में बैठकर यावत् प्रभु के समवसरण में उपस्थित हुई और देवानन्दा द्वारा जिस प्रकार भगवान् महावीर की पर्यपासना किये जाने का वर्णन है, उसी प्रकार महारानी देवकी भगवान् अरिष्टनेमि की यावत् पर्युपासना करने लगी। तदनन्तर महत् अरिष्टनेमि देवकी को सम्बोधित कर इस प्रकार बोले"हे देवकी ! क्या इन छः साधुओं को देखकर वस्तुत: तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हसा कि पोलासपुर नगर में अतिमुक्त कुमार ने तुम्हें प्राठ 'प्रतिम पुत्रों को जन्म देने का जो भविष्य कथन किया था, वह मिथ्या सिद्ध हुप्रा । उस विषय में पृच्छा करने के लिये तुम यावत् वन्दन को निकली और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy