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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ श्ररि० द्वारा अदभुत
उन दोनों साधुनों के जाने पर संयोगवश छोटे बड़े कुलों में मधुकरी के लिए घूमता हुआ तीसरा मुनि-संघाटक भी देवकी के यहाँ जा पहुँचा। यह युगलजोड़ी भी पूर्ण रूप से भिक्षार्थ पहले ग्राये हुए दोनों संघाटकों के मुनि-युगल से मिलती-जुलती थी । देवकी ने पूर्गा श्रद्धा, सम्मान और भक्ति के साथ तृतीय संघाटक को भी विशुद्ध भाव से भिक्षा दी । अन्तगड़ दशा सूत्र के एतद्विषयक विशद वर्णन में बताया गया है कि उस संघाटक को देवकी ने पूर्ण सम्मान और बड़े प्रेम से भिक्षा दी । मुनियों को भिक्षा देने के कारण देवकी का अन्तर्मन असीम आनन्द का अनुभव करते हुए इतना पुलकित हो उठा था कि वह स्नेहातिरेक और परा भक्ति के उद्रेक से अपने आपको संभाल भी नहीं पा रही थी । फिर भी अन्तर में उठे हुए एक कुतूहल और सन्देह का निवाररण करते हेतु हर्षाश्रमों से मुनि-युगल की ओर देखते हुए उसने कहा- "भगवन् ! मन्दभाग्य वाले लोगों के आँगन में प्राप जैसे महान् त्यागियों के चरण कमल दुर्लभ हैं । मेरा अहोभाग्य है कि आपने अपने पावन चरण-कमलों से इस प्रांगन को पवित्र किया. पर मेरी शंका है कि द्वारिका में हजारों गुणानुरागी, सन्तसेवी कुलों को छोड़कर प्राप मेरे यहाँ तीन बार कैसे पधारे ? "
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देवकी देवी द्वारा इस प्रकार का प्रश्न पूछे जाने पर वे मुनि उससे इस प्रकार बोले - "हे देवानुप्रिये ! ऐसी बात तो नहीं है कि कृष्ण वासुदेव की यावत् प्रत्यक्ष स्वर्ग के समान, इस द्वारिका नगरी में श्रमरण निर्ग्रन्थ उच्चनीच - मध्यम कुलों में यावत् भ्रमरण करते हुए आहार पानी प्राप्त नहीं करते और न मुनि लोग भी प्रहार- पानी के लिए उन एक बार स्पृष्ट कुलों में दूसरीतीसरी बार जाते हैं ।
वास्तव में बात इस प्रकार है - "हे देवानुप्रिये ! भद्दिलपुर नगर में हम नाग गाथापति के पुत्र और नाग की सुलसा भार्या के आत्मज छै सहोदर भाई हैं. पूर्णत: समान प्रकृति वाले यावत् नलकुबेर के समान । हम छहों भाइयों ने अरिहन्त अरिष्टनेमि के पास धर्म उपदेश सुनकर और उसे धारण करके संसार के भय से उद्विग्न एवं जन्म मरण से भयभीत हो मुण्डित होकर यावत् श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की । तदनन्तर हमने जिस दिन दीक्षा ग्रहण की थी, उसी दिन अरिहन्त अरिष्टनेमि को वंदन नमन किया और वंदन नमस्कार कर इस प्रकार का यह अभिग्रह धारण करने की प्राज्ञा चाही - "हे भगवन् ! आपकी अनुज्ञा पाकर हम जीवन पर्यन्त बेले- बेले की तपस्या पूर्वक अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरना चाहते हैं ।"
यावत् प्रभु ने कहा – “देवानुप्रियो ! जिससे तुम्हें सुख हो वैसा ही करो, प्रमाद न करो।"
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