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________________ ४५३ चक्रवर्ती] भगवान् श्री अरिष्टनेमि वाराणसी-पति कटक ने अपनी कन्या कटकवती का ब्रह्मदत्त के साथ विवाह कर दिया और दहेज में अपनी शक्तिशालिनी चतुरंगिणी सेना दी। ब्रह्मदत्त के वाराणसी आगमन का समाचार सुनकर हस्तिनापुर के नृपति कणेरुदत्त, चम्पानरेश पुष्पचूलक, प्रधानामात्य धनु और भगदत्त आदि अनेक राजा अपनी-अपनी सेनामों के साथ वाराणसी नगरी में आगये। सभी सेनाओं को सुसंगठित कर वरधन को सेनापति के पद पर नियुक्त किया और ब्रह्मदत्त ने दीर्घ पर आक्रमण करने के लिये सेना के साथ काम्पिल्यपुर की ओर प्रयारण किया। दीर्घ ने सैनिक अभियान का समाचार सुनकर वाराणसी-नरेश कटक के पास दूत भेजा और कहलाया कि वे दीर्घ के साथ अपनी बाल्यावस्था से चली आई अटूट मैत्री न तोड़ें। भूपति कटक ने उस दूत के साथ दीर्घ को कहलवाया-"हम पाँचों मित्रों में सहोदरों के समान प्रेम था। स्वर्गीय काम्पिल्येश्वर ब्रह्म का पुत्र और राज्य तुम्हें धरोहर के रूप में रक्षार्थ सौंपे गये थे । सौंपी हुई वस्तु को डाकिनी भी नहीं खाती, पर दीर्घ तुमने जैसा घरिणत और क्षुद्र पापाचरण किया है, वैसा तो अधम से अधम चांडाल भी नहीं कर सकता । अतः तेरा काल बनकर ब्रह्मदत्त पा रहा है, युद्ध या पलायन में से एक कार्य चुन लो।" । दीर्घ भी बड़ी शक्तिशाली सेना ले ब्रह्मदत्त के साथ युद्ध करने के लिये रणक्षेत्र में प्रा डटा। दोनों सेनामों के बीच भयंकर युद्ध हुप्रा । दीर्घ की उस समय के रणनीति-कुशल शक्तिशाली योद्धाओं में गणना की जाती थी। उसने ब्रह्मदत्त और उसके सहायकों की सेनाओं को अपने भीषण प्रहारों से प्रारम्भ में छिन्न-भिन्न कर दिया। अपनी सेनाओं को भय-विह्वल देख ब्रह्मदत्त क्रुद्ध हो कृतान्त की तरह दीर्घ की सेना पर भीषण शस्त्रास्त्रों से प्रहार करने लगा। ब्रह्मदत्त के असह्य पराक्रम के सम्मुख दीर्घ की सेना भाग खड़ी हुई । ब्रह्मदत्त ने दण्डनीति के साथ-साथ भेदनीति से भी काम लिया और दीर्घ के अनेक योद्धाओं को अपनी ओर मिला लिया। __ अन्त में दीर्घ और ब्रह्मदत्त का द्वन्द्व-युद्ध हुमा। दोनों एक-दूसरे पर घातक से घातक शस्त्रास्त्रों के प्रहार करते हुए बड़ी देर तक द्वन्द्व-युद्ध करते रहे, पर जय-पराजय का कोई निर्णय नहीं हो सका। दोनों ने एक-दूसरे के अमोघास्त्रों को अपने पास पहुंचने से पहले ही काट डाला । दोनों योद्धा एक-दूसरे के लिये अजेय थे। एक पतित पुरुषाधम में भी इतना पौरुष और पराक्रम होता है, यह दीर्घ के अद्भुत युद्ध-कौशल को देखकर दोनों मोर की सेनाओं के योद्धामों को प्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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