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________________ ४५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ब्रह्मदत्त बार अनुभव हुआ। दोनों ओर के सैनिक चित्रलिखित से खड़े दोनों विकट योद्धाओं का द्वन्द्व-युद्ध देख रहे थे। दर्शकों को सहसा यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि आषाढ़ की घनघोर मेघ-घटाओं के समान गम्भीर ध्वनि करता हुआ,. प्रलयकालीन अनल की तरह जाज्वल्यमान ज्वालाओं को उगलता हुआ, भीषण उल्कापात-का-सा दृश्य प्रस्तुत करता हा, अपनी अदष्टपूर्व तेज चमक से सबकी आँखों को चकाचौंध करता हुमा एक चक्ररत्न अचानक प्रकट हुआ और ब्रह्मदत्त की तीन प्रदक्षिणा कर उसके दक्षिण पार्श्व में मुण्ड हस्त मात्र की दूरी पर प्रकाश में अधर स्थित हो गया। ब्रह्मदत्त ने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी पर चक्र को धारण कर घुमाया और उसे दीर्घ की ओर प्रेषित किया । क्षण भर में ही परिणत पापाचरणों और भीषण षड्यन्त्रों का उत्पत्तिकेन्द्र दीर्घ का मस्तक उसके कालिमा-कलुषित धड़ से चक्र द्वारा अलग किया जाकर पृथ्वी पर लुढ़क गया। पापाचार की पराजय और सत्य की विजय से प्रसन्न हो सेनाओं ने जयघोषों से दिशाओं को कंपित कर दिया। बड़े समारोहपूर्वक ब्रह्मदत्त ने काम्पिल्यपुर में प्रवेश किया। चुलनी अपने पतित पापाचार के लिए पश्चात्ताप करती हुई ब्रह्मदत्त के नगर-प्रवेश से पूर्व ही प्रव्रजित हो अन्यत्र विहार कर गई । प्रजाजनों और मित्र-राजाओं ने बड़े ही आनन्दोल्लास और समारोह के साथ ब्रह्मदत्त का राज्याभिषेक महोत्सव सम्पन्न किया। इस तरह ब्रह्मदत्त निरन्तर सोलह वर्ष तक कभी विभिन्न भयानक जंगलों में भूख-प्यास आदि के दुःख भोगता हुआ और कभी भव्य-प्रासादों में सुन्दर रमणी-रत्नों के साथ आनन्दोपभोग करता हुआ अपने प्राणों की रक्षा के लिए पृथ्वी-मण्डल पर घूमता रह कर अन्त में भीषण संघर्षों के पश्चात् अपने पैतृक राज्य का अधिकारी हुआ। काम्पिल्यपुर के राज्य सिंहासन पर बैठते ही उसने बन्धुमती, पुष्पवती, श्रीकान्ता, खण्डा, विशाखा, रत्नवली, पुण्यमानी, श्रीमती और कटकवती इन नवों ही अपनी पत्नियों को उनके पितगहों से बला लिया। ब्रह्मदत्त छप्पन्न वर्षों तक माण्डलिक राजा के पद पर रहकर राज्य-सूखों का उपभोग करता रहा और तदनन्तर बहुत बड़ी सेना लेकर भारत के छह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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