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- जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[त्रिशला के यहाँ
माण्डलिक की माता एक शुभस्वप्न देखकर जागृत होती है । महारानी त्रिशला देवी ने चौदह शुभस्वप्न देखे हैं, अतः इनको तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती जैसे किसी महान् भाग्यशाली पुत्ररत्न का लाभ होगा। निश्चित रूप से इनके ये स्वप्न परम प्रशस्त और महामंगलकारी हैं।"
स्वप्नपाठकों की बात सुनकर महाराज सिद्धार्थ परम प्रमुदित हुए और उन्होंने उनको जीवनयापन योग्य प्रीतिदान देकर सत्कार एवं सम्मान के साथ विदा किया। महारानी त्रिशला भी योग्य आहार-विहार और मर्यादित व्यवहारों से गर्भ का सावधानीपूर्वक प्रतिपालन करती हुई परमप्रसन्न मुद्रा में रहने लगीं।
महारानी त्रिशलादेवी ने जिस समय भगवान् महावीर को अपने गर्भ में धारण किया, उसी समय से तुजभक देवों ने इन्द्र की माज्ञा से पुरातन निधियों लाकर महाराज सिद्धार्थ के राज्य-भण्डार को हिरण्य-सुवर्णादि से भरना प्रारंभ कर दिया और समस्त ज्ञातकुल की विपुल धन-धान्यादि ऋद्धियों से महती अभिवृद्धि होने लगी।'
महावीर का गर्भ में अभिग्रह
भगवान् महावीर जब त्रिशला के गर्भ में थे, तब उनके मन में विचार पाया कि उनके हिलने-डुलने से माता अतिशय कष्टानभव करती है। यह विचार कर उन्होंने हिलना-डुलना बन्द कर दिया। किन्तु गर्भस्थ जीव के हलनचलनादि क्रिया को बन्द देख कर माता बहुत घबराई। उनके मन में शंका होने लगी कि उनके गर्भ का किसी ने हरण कर लिया है अथवा वह मर गया है या गल गया है । इसी चिन्ता में वह उदास और व्याकुल रहने लगीं । माता की उदासी से राज-भवन का समस्त प्रामोद-प्रमोद एवं मंगलमय वातावरण शोक और चिन्ता में परिणत हो गया । गर्भस्थ महावीर ने अवधिज्ञान द्वारा मां को यह करुणावस्था प्रौर राजभवन की विषादमयी स्थिति देखी तो वे पुनः अपने अंगोपांग हिलाने-डुलाने लगे जिससे मां का मन फिर प्रसन्नता से नाच उठा और राजभवन में हर्ष का वातावरण छा गया। मां के इस प्रबल स्नेहभाव को देख कर महावीर मे गर्भकाल में ही यह अभिग्रह धारण किया-"जब तक
१ अदिवस भय...तिसला देवीए उदरकमलमइगमो तदिवसामोवि सुरवाइवयणेरण तिरिवगंभगा देवा विविहाई महानिहाणाई सिबत्पनरिवमुवणंमि मुबो-मुबो परिमिति, तपि नायकुलं पणेणं पोवाडमभिव .....
[महावीर परित्र (गुणचना), पत्र ११४ (१)]
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