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और कंस को वचन-दान]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
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किया। बड़ी ऋद्धि के साथ देवकी को लेकर वसुदेव वहां से चलकर मथुरा पहँचे। कंस भी उस मंगल महोत्सव में वसदेव के साथ मथुरा पहँचा और विनयपूर्वक वसुदेव से बोला-“देव ! इस खुशी के अवसर पर मुझे भी मुहमांगा उपहार दीजिये"
वसुदेव के 'हां' कहने पर हर्षित हो कंस ने देवकी के सात गर्भ मांगे । मैत्री के वश सहज भाव से बिना किसी अनिष्ट की आशंका के वसुदेव ने कंस. की बातें मानलीं।
कंस के चले जाने पर वसुदेव को मालूम हुआ कि अतिमुक्तक कुमार श्रमण ने कंस-पत्नी जीवयशा द्वारा उन्हें देवकी का प्रानन्दवस्त्र दिखाकर उपहास किये जाने पर' क्रुद्ध हो कर कहा था--"जिस पर प्रसन्न हो तू नाचती है, उस देवकी का सातवाँ पुत्र तेरे पति और पिता का घातक होगा।"
__ कंस ने श्रमण के इसी शाप से भयभीत हो कर उक्त वरदान की याचना की है। वसूदेव ने मन ही मन विचार किया-"क्षत्रिय कभी अपने वचन से पीछे नहीं लौटते । मैंने शुद्ध मन से जब एक बार कंस को गर्भदान का वचन दे दिया है तो फिर इस वचन का निर्वाह करना ही होगा, भले ही इसके लिए बड़ी से बड़ी विपत्ति का सामना क्यों न करना पड़े।'
विवाह के पश्चात् देवकी ने क्रमशः छः बार गर्भ धारण किये पर प्रसवकाल में ही देवकी के छः पुत्र सुलसा गाथापत्नी के यहां तथा सुलसा के छः मत पुत्र देवकी के यहां हरिणेगमेषी देव ने अपनी देवमाया द्वारा प्रज्ञात रूप से पहुंचा दिये । वे ही छः पुत्र वसुदेव ने अपनी प्रतिज्ञानुसार प्रसव के तुरन्त पश्चात् ही कंस को सौंपे और कंस ने उन्हें मृत समझकर फेंक दिया।
सातवीं बार जब देवकी ने गर्भ धारण किया तो सात महाशुभ-स्वप्न देख कर वह जागत हुई और वसुदेव को स्वप्नों का विवरण कह सुनाया। वसुदेव ने स्वप्नफल सुनाते हुए कहा-"देवि! तुम एक महान् भाग्यशाली पुत्र को जन्म दोगी। यही तुम्हारा सातवा पुत्र अइमुत्त श्रमण के वचनानुसार कंस मोर जरासंध का विघातक होगा।"
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१ (क) मानन्दवस्त्रमेतत्ते, देवक्याः स्वसुरीक्ष्यताम् ।।
[हरिवंत पु० स० ३० श्लोक १३] (ब) जीवजसाए हसि प्राइमुत्त मुणी य मत्ताए ॥४॥
तेणय कोवादूरिय, हियएणं मुणिवरेण सा सत्ता । जो देवतीय गम्भो, सोतुह पहणो विरणासाय ॥३४॥
[...पृष्ठ १८३] २ बसुदेव हिन्डी।
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