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________________ - ३८६ रहस्य का उद्घाटन भगवान् श्री अरिष्टनेमि और वंदन-नमस्कार करके जहाँ वे छहों मुनि विराजमान थे, वहाँ पाई । पाकर वह उन छहों मुनियों को वंदन-नमस्कार करने लगी। उन अनगारों को देखकर पुत्र-प्रेम के कारण उसके स्तनों से दूध झरने लगा। हर्ष के कारण उसकी आँखों में आँस भर पाये एवं अत्यन्त हर्ष के कारण शरीर फूलने से उसकी कंचुकी की कसें टूट गई और भुजाओं के प्राभूषण तथा हाथ की चूड़ियाँ तंग हो गई। जिस प्रकार वर्षा की धारा के पड़ने से कदम्ब पुष्प एक साथ विकसित हो जाते हैं उसी प्रकार उसके शरीर के सभी रोम पुलकित हो गये । वह उन छहों मुनियों को निनिमेष दृष्टि से चिरकाल तक निरखती ही रही। तत्पश्चात उसने छहों मुनियों को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके जहाँ भगवान् अरिष्टनेमि विराजमान हैं, वहाँ आई और पाकर अहत् अरिष्टनेमि को तीन बार दक्षिण तरफ से प्रदक्षिणा करके नमस्कार किया, तदनन्तर उसी धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो द्वारिका नगरी की ओर लौट गई। 'चउवन्न महापूरिस चरियं' में इन छहों मुनियों के सम्बन्ध में अन्तगड़ सत्र के उपरिलिखित विवरण से कतिपय अंशों में भिन्न, किन्तु बड़ा ही रोचक वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है : देवकी ने मुनि-युगल से कहा- “महाराज कृष्ण की देवपुरी सी द्वारिका नगरो में क्या श्रमण निर्ग्रन्थों को अटन करते भिक्षा-लाभ नहीं होता, जिससे उन्हीं कुलों में दूसरी तीसरी बार वे प्रवेश करते हैं ?" देवकी की वात सुनकर मुनि समझ गये कि उनसे पूर्व उनके चारों भाइयों के दो संघाड़े भी यहाँ पा चुके हैं। उनमें से एक ने कहा- "देवकी ! ऐसी बात नहीं है कि द्वारिका नगरी के विभिन्न कुलों में घूमकर भी भिक्षा नहीं मिलने से हम तीसरी बार तुम्हारे यहाँ भिक्षा को प्राये हैं। पर सही बात यह है कि हम एक ही माँ के उदर से उत्पन्न हुए छः भाई हैं । शरीर और रूप की समानता से हम सब एक से प्रतीत होते हैं । कंस के द्वारा हम मार दिये जाते किन्तु हरिणगमेषी देव ने भद्दिलपुर की मृतवत्सा सुलसा गाथापत्नी की भक्ति से प्रसन्न हो, हमें जन्म लेते ही सुलसा के प्रीत्यर्थ तत्काल उसके पुत्रों से बदल दिया' । सुलसा ने ही हमें पाल-पोषकर बड़ा किया और हम सब का पाणिग्रहण करवाया। बड़े होकर हमने भगवान नेमिनाथ के मुखारविन्द से अपने कुल-परिवर्तन का १ जन्मजात छः पुत्रों के परिवर्तन की बात देवकी को भगवान् अरिष्टनेमि से ज्ञात हुई, इस प्रकार का अन्तगड़ में उल्लेख है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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