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________________ शिष्यत्व की मोर] भगवान् महावीर ७२७ महावीर के पास प्राया और प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन करके बोला-"भगवन ! आज से प्राप मेरे धर्माचार्य और मैं पापका शिष्य हूं। मैंने मन में भली-भांति सोचकर ऐसा निश्चय किया है। मुझे अपनी चरण-शरण में लेकर सेवा का अवसर दें।" प्रभु ने सहज में उसकी बात सुन ली और कुछ उत्तर नहीं दिया। भगवान महावीर के चतुर्थ मासिक तप का. पारणा नालन्दा के पास 'कोल्लाग' गांव में 'बहल' ब्राह्मण के यहां हुआ था। गोशालक की अनुपस्थिति में भगवान् गोचरी के लिये बाहर निकले थे, अतः गोशालक जब पुनः तन्तुवायशाला में पाया तो वहां प्रभु को न देखकर उसने सारी राजगृही छान डाली मगर प्रभु का कुछ पता नहीं लगा । अन्त में हार कर उदास मन से वह तन्तुवायशाला में लौट पाया और अपने वस्त्र, पात्र, जूते प्रादि ब्राह्मणों को बांटकर स्वयं दाढ़ी मूछ मुडवा कर प्रभु की खोज में कोल्लाग सन्निवेग की ओर चल दिया। शिष्यत्व को प्रोर मार्ग में जन-समुदाय के द्वारा 'बहुल' के यहां हुई दिव्य-वृष्टि के समाचार सुनकर गोशालक को पक्का विश्वास हो गया कि निश्चय ही भगवान् यहाँ विराजमान हैं, क्योंकि उनके जैसे तपस्तेज की ऋद्धि वाले अन्यत्र दुर्लभ हैं। उनके चरण-स्पर्श के बिना इस प्रकार की द्रव्य-वष्टि संभव नहीं है। इस तरह अनुमान के आधार पर पता लगाते हुए वह महावीर के पास पहुंच गया। - गोशालक ने प्रभु को सविधि वन्दन कर कहा-"प्रभो ! मुझसे ऐसा क्या अपराध हो गया जो इस तरह बिना बताये आप यहाँ चले आये ?. मैं आपके बिना अब एक क्षण भी अन्यत्र नहीं रह सकता। मैंने अपना जीवन आपके चरणों में समर्पित कर दिया है। मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूं कि आप मेरे धर्माचार्य और मैं पापका शिष्य हूं।" प्रभु ने जब गोशालक के विनयावनत अन्तःकरण को देखा तो उसकी प्रार्थना पर "तथास्तु" की मुहर लगा दी। प्रभु के द्वारा अपनी प्रार्थना स्वीकृत होने पर वह छः वर्ष से अधिक काल तक शिष्य रूप में भगवान के साथ विभिन्न स्थानों में विचरता रहा, जिसका उल्लेख महावीर-चर्या के प्रसंग में यथास्थान किया जा चुका है। विरुवाचरण प्रभु के साथ विहार करते हुए गोशालक ने कई बार भगवान् की बात को मिथ्या प्रमाणित करने का प्रयत्न किया, परन्तु उसे कहीं भी सफलता नहीं मिली। दुराग्रह के कारण उसके मन में प्रभु के प्रति श्रवा में कमी पायी किन्तु वह प्रभु से तेजोलेश्या का ज्ञान प्राप्त करना चाहता था, अतः उस अवधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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