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________________ ७२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गौशालक का महावीर से सम्पर्क "गोशालायां जातो गोशालः" इस व्युत्पत्ति से भी इस कथन की पुष्टि होती है। बौद्ध आचार्य बुद्धघोष ने 'सामन्न फलसुत्त' की टीका में गोशालक का जन्म गोशाला में हा माना है।' इतिहास लेखकों ने पाणिनि का काल ई० पूर्व ४०० से ई० पूर्व ४१० माना है। गोशालक के निधन और पाणिनि के रचनाकाल में लगभग एक सौ बयालीस वर्ष का अन्तर है। संभव है, गोशालक-मत के उत्कर्षकाल में यह व्याख्या की गई हो। गोशालक का आजीवक सम्प्रदाय में प्रमुख स्थान रहा है। कुछ विद्वानों ने उसे प्राजीवक सम्प्रदाय का प्रवर्तक भी बताया है। पर सही बात यह है कि आजीवक सम्प्रदाय गोशालक के पूर्व से ही चला आ रहा था। जैनागम एवं त्रिपिटक में गोशालक की परम्परा को आजीवक या आजीविक कहा है। दोनों का अर्थ एक ही है । प्रतिपक्ष द्वारा निर्धारित इस नाम की तरह वे स्वयं इसका क्या अर्थ करते होंगे, यह स्पष्ट नहीं होता । हो सकता है, उन्होंने इसका शुभरूप स्वीकार किया हो। ___ डॉ० बरुया ने आजीविक के सम्बन्ध में लिखा है कि यह ऐसे संन्यासियों की एक श्रेणी है, जिनके जीवन का आधार भिक्षावृत्ति है, जो नग्नता को अपनी स्वच्छता एवं त्याग का बाह्य चिह्न बनाये हुए हैं, जिनका सिर मुडा हुआ रहता है और जो हाथ में बांस के डंडे रखते हैं। इनकी मान्यता है कि जीवन-मरण, सुख-दुःख और हानि-लाभ यह सब अनतिक्रमणीय हैं, जिन्हें टाला नहीं जा सकता । जिसके भाग्य में जो लिखा है, वह होकर ही रहता है। गोशालक से महावीर का सम्पर्क साधना के दूसरे वर्षावास में जब भगवान महावीर राजगृह के बाहर नालन्दा में मासिक तप के साथ चातुर्मास कर रहे थे, उस समय गोशालक भी हाथ में परम्परानुकल चित्रपट लेकर ग्राम-ग्राम घूमता हुआ प्रभ के पास तन्तुवाय शाला में आया । अन्य योग्य स्थान न मिलने के कारण उसने भी उसी तन्तुवाय शाला में चातुर्मास व्यतीत करने का निश्चय किया। भगवान् महावीर ने प्रथम मास का पारणा 'विजय' गाथापति के यहां किया। विजय ने बड़े भक्तिभाव से प्रभु का सत्कार किया और उत्कृष्ट अशनपान आदि से प्रतिलाभ दिया । त्रिविध-त्रिकरण शुद्धि से दिये गये उसके पारणदान की देवों ने महिमा की, उसके यहां पंच-दिव्य प्रकट हुए। क्षणभर में यह अद्भुत समाचार अनायास नगर भर में फैल गया और दृश्य देखने को जन-समह उमड़ पड़ा । मंखलिपुत्र गोशालक भी भीड़ के साथ चला पाया और द्रव्य-वृष्टि आदि आश्चर्यजनक दृश्य देखकर दंग रह गया । वह वहां से लौटकर भगवान् १ सुमंगल विलासिनी (दीर्घ निकाम अट्ठकहा) पृ० १४३-४४ २ बासुदेवशरण अग्रवाल । पाणिनीकालीन भारतवर्ष । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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