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________________ ३५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [दोनों ओर युद्ध की तैयारियाँ “इसी तरह उपप्रदान की नीति भी अात्मसम्मान का हनन करने वाली व अपमानजनक है।" "अतः अभिमानी जरासन्ध के गर्व को चूर-चूर करने के लिए हमें दण्डनीति का ही प्रयोग करना चाहिये और वह भी दुर्ग का आश्रय लेकर नहीं अपितु उसके सम्मुख जाकर उसकी सीमा पर उससे युद्ध के रूप में करना चाहिये। क्योंकि दुर्ग का आश्रय लेकर शत्र से लड़ने में संसार के सामने अपनी भीरुता प्रकट होने के साथ ही साथ अपने राज्य के बहुत बड़े भाग पर शत्रु का अधिकार . भो हो जाता है। शत्र के सम्मख जाकर उसकी सीमा पर यद्ध करने की दशा में अपनी भीरुता के स्थान पर पौरुष प्रकट होता है, अपने राज्य का समस्त भू-भाग अपने अधिकार में रहता है । शत्र भी हमारे शौर्य एवं साहस से आश्चर्यचकित हो किंकर्तव्यविमूढ हो जाता है । अपनी प्रजा और सैन्यबल का साहस तथा मनोबल बढ़ता है और अपनी सीमा-रक्षक सेनाएं भी युद्ध में हमारी सहायता कर सकती हैं । दण्ड-नीति के इन सब गुणों को ध्यान में रखते हुए हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि हम अपने शत्रु को उसके सम्मुख जाकर युद्ध में परास्त करें।" __ दोनों मोर युद्ध की तैयारियां मन्त्रणा-परिषद में उपस्थित सभी सदस्यों ने जयजयकार और हर्षध्वनि क साथ महाराज समद्रविजय की मन्त्रणा को स्वीकार किया। शंख-ध्वनि और रणभेरी के नाद से समस्त गगनमण्डल गूज उठा । मित्र राजाओं के पास तत्काल दूत भेज दिये गये । योद्धा रण-साज सजने लगे। शुभ मुहूर्त में यादवों की चतुरंगिणी प्रबल सेना ने रणक्षेत्र की ओर प्रलयकालीन आँधी की तरह प्रयाग कर दिया । आषाढ़ की घनघोर मेघघटा के गर्जन तुल्य 'घर-घर' रव से गगनमण्डल को गजाते हए रथों के पहियों से, तरल तुरंग-सेना की टापों से और पदाति सेना के पाद-प्रहारों से उड़ी हुई धूलि के समूहों ने अस्ताचल पर अस्त होने वाले सूर्य को मध्याह्न-वेला में ही अस्तप्राय: कर दिया। इस तरह कूच पर कूच करती हुई यादवों की सेना कुछ ही दिनों में द्वारिका से ४५ योजन अर्थात् ३६० माइल (१८० कोस) दूर सरस्वती नदी के तटवर्ती सिनीपल्ली (सिणवल्लिया) नामक ग्राम के पास पहँची और वहां १ चउवन महापुरुष चरियम् [पृ १८४-८५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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