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________________ उस समय की राजनीति] भगवान् श्री अरिष्टनेमि ३४६ "तीसरी उपप्रदान (दाम) नीति का तो जरासंध के विरुद्ध प्रयोग करना . नितान्त प्रसाध्य है । क्योंकि जरासंध ने अपनी अनुपम उदारता से अपने समस्त सामन्तों, अधिकारियों एवं सैनिकों तथा दासादिकों को कंचन-कामिनी, मरिण रत्नादि से पूर्ण वैभवसम्पन्न बना रखा है।" "प्रतः चौथी दण्ड-नीति का अवलम्बन ही हमारे लिए उपादेय और श्रेयस्कर है।" "इन चार नीतियों के अतिरिक्त नीति-निपुणों ने एक और उपाय भी बताया है कि प्रजेय प्रबल शत्रु से संघर्ष को टालने हेतु उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर देना चाहिये अथवा अपने स्थान का परित्याग कर किसी अन्य स्थान की मोर पलायन कर जाना चाहिये।" "पर ये दोनों प्रकार के हीन पाचरण हमारे प्रात्म-सम्मान के घातंक हैं और बलराम व कृष्ण जैसे पुरुषसिंह जब हमारे सहायक हैं, उस अवस्था में पलायन अथवा मात्म-समर्पण का प्रश्न ही नहीं उठता।" "किन्तु दण्ड-नीति का अवलम्बन करते समय रण-नीति के इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त का प्रक्षरशः पालन करना होगा कि युद्ध में उलझा हा व्यक्ति अन्तिम विजय तक प्राण-परण से जूझता रहे और एक क्षणभर के लिए भी सुख और विश्राम की माकांक्षा न करे।" उग्रसेन की साहस और नीतिपूर्ण बातों का सभी सभासदों ने 'साधु-साधु' कहकर एक स्वर से समर्थन करते हुए कहा-"धन्य है आपकी नीतिकुशलता, मामिक अभिव्यंजना और वीरोचित गौरव-गरिमा को । हम सब हृदय से प्रापका अभिनन्दन करते हैं।" तदनन्तर सभी सभासद महाराज समुद्रविजय का अभिमत जानने के लिए उनकी मोर उत्कंठित हो देखने लगे। महाराज समुद्रविजय ने गम्भीर स्वर में कहा-"महाराज उग्रसेन ने मानो मेरे ही मन की बात कह दी है । जिस प्रकार तीव्र ज्वर में सम अर्थात् ठंडी मौषधि ज्वर के प्रकोप को भीषण रूप से बढ़ा देती है, उसी प्रकार अपने बल-दर्प से गर्वोन्मत्त शत्रु के प्रति किया गया साम-नीति का व्यवहार उसके दर्प को बढ़ाने वाला और अपनी भीरुता का द्योतक होता है।" "भेद-नीति भी छल-प्रपञ्च, कूटिलता और वंचना से भरी होने के कारण गर्हित और निन्दनीय है, अतः वह भी महापुरुषों की दृष्टि में हेय मानी गई है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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