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________________ ३४८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [उस समय की राजनीति अम्बुधि-गम्भीर, किशोर अरिष्टनेमि की शान्त मुखमुद्रा पर भी हल्की सी लाली दृष्टिगोचर होने लगी। यादव योद्धाओं के हाथ अनायास ही अपने-अपने शस्त्रों पर जा पडे। महाराज समुद्रविजय ने इंगित मात्र से सबको शान्त करते हुए घनवत् गम्भीर स्वर में कहा-“दूत ! यदि यादवों के विशिष्ट गुणों पर मुग्ध हो स्नेह के वशीभूत होकर किसी देवी ने तुम्हारे सेनापति को मार दिया तो इसमें यादवों ने कौनसा छल-प्रपञ्च किया ?" __ “यदि पीढियों से चले आ रहे अपने परस्पर के प्रगाढ़ प्रेमपूर्ण सम्बन्धों को तोड़कर तेरा स्वामी सेना लेकर आ रहा है तो उसे आने दे । यादव भी भीरु नहीं हैं।" भोज नरेश उग्रसेन ने कहा- "सुनो दूत ! तुम दूत हो और हमारे घर आये हुए हो, अतः यादव तुम्हें अवध्य समझकर क्षमा कर रहे हैं । अब व्यर्थ प्रलाप की आवश्यकता नहीं । जाप्रो और अपने स्वामी से कह दो कि जो कार्य प्रारम्भ कर दिया है, उसे आप शीघ्र पूर्ण करो।"१ उस समय की राजनीति दूत के चले जाने के अनन्तर दशाह, बलराम-कृष्ण, भोजराज उग्रसेन, मन्त्रिपरिषद् और प्रमुख यादव मन्त्रणार्थ मन्त्रणाभवन में एकत्रित हुए । गुप्त मंत्ररणा प्रारम्भ करते हुए समुद्रविजय ने मन्त्रणा-परिषद् के समक्ष यह प्रश्न रखा-"हमें इस प्रकार की अवस्था में शत्रु के साथ किस नीति का अवलम्बन करते हुए कैसा व्यवहार करना चाहिये ?" भोजराज उग्रसेन ने कहा-"महाराज ! राजनीति-विशारदों ने साम, भेद, उपप्रदान (दाम) और दण्ड-ये चार नीतियां बताई हैं । जरासंध के साथ साम-नीति से व्यवहार करना अब पूर्णरूपेण व्यर्थ है क्योंकि अब वह हमारी भोर से किये गये मृदु से मृदुतर व्यवहार से भी छेड़े हुए भयानक काले नाग की तरह क्रुद्ध हो कर फूत्कार कर उठेगा।" __. “दूसरी जो भेदनीति है उसका भी जरासन्ध पर प्रयोग किया जाना असम्भव है क्योंकि मगधेश द्वारा अतिशय दान-मानादि से सुसमृद्ध एवं सम्मानित उसके समस्त सामन्त मगधपति के ऋण से उऋण होने के लिए उसके एक ही इंगित पर अपने सर्वस्व और प्रारणों तक को न्योछावर करने में अपना महोभाग्य समझते हैं।" १ चउवन महापुरुष चरियम् [पृ० १८३-८४] - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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